Wednesday 8 May, 2013

चर्चा में रहती हैं कलाकारों की पोशाकें


नेहा घई पंडित

गाजि़याबाद। हिन्दुस्तान सिनेमा के सौ बरस पूरे हो चुके हैं और अपने शतकीय दौर में हिन्दी सिनेमा अनेक उतार और चढ़ाव की पारियां देख चुका है। कई फिल्में क्रिकेट के टेस्ट मैच की तरह लंबी पारियां खेलती रहीं, तो कुछ एक दिवसीय मैच की तरह और कुछ टी-20 के रोमांच की तरह फटाफट स्क्रीन पर आईं और चल दीं। कई फिल्मों के नतीजे अघोषित मैच की तरह रहे लेकिन फिल्मों की पारियां जैसी भी हों, किसी ना किसी वजह से सिनेमा चर्चा में ज़रूर रहा। कलाकारों की हेकड़ी के चर्चे हुए तो स्टारडम से पायदान खिसके जाने से परेशान कलाकारों की बात इस पूरे दौर में आम रही।

पर्दे पर कलाकारों ने स्पोट्र्स वेहिकल के मजे लिए तो किसी ने खुद स्टंट मारकर खुद को तीस मार खां साबित करने का साहस कर दिखाया। पूरा हिन्दी सिनेमा किसी ना किसी वजह से हमारे ड्राईंग रूम से लेकर बेडरूम तक हमेशा चर्चा का विषय बना रहता है। यही खासियत है हमारे सिनेमा की। आखिर हम कलाकारों और उनके अभिनय को अपनी जिन्दगी की आम घटनाओं से जोड़कर देखते हैं।  

महिलाएं सिने कलाकार को देखकर उसके पहनावे को चर्चा बनाती हैं तो पुरुष भी अपने पसंदीदा कलाकार के रवैया या पहनावे को एक ट्रेंड मानकर चलता है और यही खासियत है हमारे भारतीय सिनेमा की। हम अपने फिल्मी कलाकारों को, उनके रहन-सहन या पहनावे को बाजार के रूप में देखते हैं लेकिन कभी-कभी फिल्मों में कलाकारों की पहनी हुई पोशाकों की चर्चा इतनी हो जाती है कि हम चाहकर भी इन पहनावों की चर्चा किए बगैर नहीं रहते। पिछले सौ सालों में अलग-अलग रंग, अलग-अलग स्टाइल और अलग-अलग ढंग से बनाए कास्ट्युम्स ने कई बार दर्शकों को टिकट खिड़की तक पहुंचने पर मजबूर कर दिया। 

70 के दशक से चला आ रहा दौर आज भी जारी

नब्बे के दशक में हिन्दी सिनेमा विदेशों में पैर पसारने लगा और फिर विदेशों के फैशन से प्रतिस्पर्धा के चलते नित नए परिधानों को सिनेमा स्क्रीन पर उतारा जाने लगा और एक ऐसे दौर का आगाज़ हुआ जिसनें फिल्मों में पोशाक डिज़ाइनिंग के लिए नए आयाम खोल दिए। बदलते दौर में पोशाकों की ज़रूरत सिनेमा पिटारे को खूबसूरत बनाने के हिसाब से होने लगी। स्टंट के सीन हो या मारधाड़ से भरे या फिर कोई आइटम गीत, हर जगह महंगे परिधान एक महत्वपूर्ण किरदार निभा रहे हैं, यह बात अलग है कि फिल्मों की महंगी पोशाकें फिल्मों को हिट करने की गारंटी नहीं ले सकतीं। पिछले सौ सालों के हिन्दी फिल्म इतिहास में मुमताज से लेकर मधुबाला तक और जीनत से लेकर परवीन बाबी और फिर श्रीदेवी, जयाप्रदा से लेकर माधुरी और जूही चावला और अब करीना से लेकर कटरीना और सोनाक्षी तक, सभी महिला कलाकारों ने पोशाकों पर अपना ध्यान बराबर बनाये रखा है। 70 के दशक से चलता आ रहा यह दौर आज भी उसी रफ्तार से चल रहा है।  


इन फिल्मों की पोशाकें बनीं चर्चा का विषय

नए दौर के सिनेमा और उनके कुछ चुनिंदा पोशा$कों की जिनकी वजह से फिल्में चर्चा का विषय रहीं। पीरियड फिल्म 'वीर' के लिए सलमान की पोशाक अपने आप में एक चर्चा का विषय थी। लगभग 30 लाख से ज्यादा लागत से बना कवच भी फिल्म की जान नहीं बचा पाया। फिल्म 'जोधा अकबर' में नीता लुल्ला के द्वारा बनाए गए पोशाक ने काफी वाह-वाही बटोरी। हीरे, कुंदन और नगीनों से जडि़त पोशाक रितिक रोशन और ऐश्वर्या के चेहरे और नूर पर चार चांद लगाते दिखे। माना जाता है कि फिल्म में ऐश्वर्या की एक-एक पोशाक की कीमत 2 लाख से ज्यादा थी। संजय लीला भंसाली की फिल्म 'देवदास' भी इस मामले में कतई कम नहीं रही, माधुरी दीक्षित की एक-एक पोशाक की कीमत 15 लाख तक आंकी गई और अपनी पोशाकों के कीमत के अनुरूप कलाकारों के अभिनय और सटीक निर्देशन में फिल्में बाजी मार ले गईं। क्या सिफर्  महंगी पोशाकें फिल्म का भविष्य तय कर सकती हैं? कदापि नहीं, उदाहरण के तौर पर 'कमबख्त इश्क' फिल्म में करीना कपूर की पहनी पोशाक 80 लाख की थी, फिल्म को 'देवदास' और 'जोधा अकबर' की तुलना में कई गुना व्यवसाय कर जाना चाहिए था, पर हकीकत सारी दुनिया जानती है। और थोड़ी बात करी जाए तो फिल्म 'रा-वन' को याद कर लीजिए। शाहरुख नें फिल्म में कम से कम 20 ऐसी पोशाकें पहनी जिनकी एक-एक की कीमत 4-5 करोड़ तक आंकी गई। दर्शकों को इन महंगी पोशाकों पर जरा भी रहम नहीं आया और हर दर्शक इस फिल्म को बाय-बाय करता चल दिया।  

कलाकार को अलग दिखाने की चाह में होते रहे हैं प्रयोग

अगर पुराने दौर की बात भी हो जाए। के आसिफ  की क्लासिक फिल्म 'मुगल-ए-आज़म' में अनारकली के किरदार में मधुमाला ने रौबदार और रत्न जडि़त पोशाक़ पहनकर सिनेमा के दर्शकों का दिल जीत लिया और आज भी ये पोशाकें बाजार में अनारकली स्टाइल पोशाक के नाम से बेची जाती हैं। फिल्म 'तीसरी मंजिल' के गीत 'ओ हसीना जुल्फों वाली' को जऱा याद कीजिए, हेलेन की पहनी पोशाक उस ज़माने में एक ट्रेंड सेटर बन गई थी और इसी गीत और अभिनेत्री के पहनावे ने फिल्म की तरफ  दर्शकों को खींचने में सफलता पाई। मुजफ्फर अली की 'उमराव जान' में अभिनेत्री रेखा की जड़ाऊ और पोलकिश पोशाकों को कौन याद नहीं करता। अपनी अदायगी, खूबसूरती और इस पहनावे के साथ तो जैसे रेखा ने कमाल ही कर दिया था। जहां 50 के दशक में पुरुष कलाकार ही महिलाओं की भूमिका अदा किया करता था, वहीं 60 के दशक में फिल्मों की पृष्ठभूमि परिवार और समाज के इर्द-गिर्द ही रही। सत्तर के दशक में महिला किरदारों को कॉलेज और अन्य शहरों के तरफ  कूच करते दिखाया जाने लगा और भीड़ में अभिनेत्री को अलग दिखाने की चाह में फिल्मों में उनके पहनावे को लेकर खासे प्रयोग होना शुरु हो गए, यही आलम हीरो केंन्द्रित मसाला फिल्मों के दौर में भी साफ  नजऱ आने लगा। अस्सी के दशक तक सिनेमा त्रिकोणीय प्यार, एक्शन और रोमांस की तरफ  बढऩे लगा था और अब फिल्मों में पोशाक़ों को लेकर ज्य़ादा समझ दिखाई देने लगी थी।

हीरो-हीरोइन की पोशाकें भी बनती रही हैं ट्रेंड

'शहंशाह' अमिताभ बच्चन की पहनी पोशाक की बात की जाए या फिर 'मिस्टर इंडिया' के खलनायक मोगैम्बो यानि अमरीश पुरी साहब की, इन सभी पोशाकों ने दर्शकों के बीच चर्चा का विषय बनने में कमी नहीं की। 1970 के दशक में राजेश खन्ना, विनोद खन्ना जैसे कलाकारों के ड्रेस की बात हो या फिर नब्बे के दशक में शाहरुख और आमिर खान की पोशाकों के जलवे, सबने समय-समय पर फैशन ट्रेंड को स्थापित करने का काम किया है। पोशाकें हिन्दी सिनेमा का अभिन्न हिस्सा हैं और रहेंगी, ये बात अलग है कि फिल्मों को प्रचारित करने के लिए पोशाकों को लेकर मार्केटिंग रणनीति के तहत क्या-क्या हथकंडे अपनाए जाते हैं, इससे कोई भी अनभिज्ञ नहीं है। जो भी है, जैसा भी है, आज हम हिन्दी सिनेमा के 100 बरस को एक नए आगाज़ के तौर पर देखते हैं, एक नई शुरुआत के तौर पर देखते हैं, फिल्में पिटें या सुपर हिट हों, हम कम से कम पोशाक बनाने वालों को धन्यवाद तो ज़रूर दे सकते हैं, आखिर वे ही तो हैं जो हमारे कलाकारों को सजा-धजा कर हम तक पेश करते हैं। हिन्दी सिनेमा जिन्दाबाद! पोशाक डिजाईनर जिन्दाबाद!

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