Wednesday 6 March, 2013

विदेश जाकर समझ आई खेती की अहमियत



फतेहपुर(बाराबंकी) एक बहुराष्ट्रीय कंपनी से इस्तीफा देने के बाद 3 नवंबर 2008 को राहुल मिश्रा (40) ने अपनी गाड़ी में गैस चूल्हा और सिलेंडर, पानी की दो बड़ी बोतलें रखीं, दो पालतू कुत्तों को बैठाया और पत्नी-बेटे के साथ दिल्ली से अपने गाँव पहुंच कर खेत में तम्बू  गाड़ दिया।

राहुल उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले के गाँव सरैंया खेती करने पहुंचे थे। अपने गाँव लौटकर खेती करने का यह फैसला उन्होंने विदेश भ्रमण के दौरान लिया, जब वहां देखा कि कैसे खेती को व्यापारिक रूप दिया जा सकता है।

"एमबीए करने के बाद सेल्स और मार्केटिंग के क्षेत्र में करीब 15 साल तक नौकरी की। नौकरी के ही सिलसिले में आस्ट्रेलिया गया था। वहीं सेटल भी हो जाना चाहता था। फिर वहां के लोगों को देखा कि किस तरह वह खेती को व्यापारिक तरीके  से करते हैं। मुझे भी अपने गाँव की याद आई और गाँव जाकर ऐसे ही खेती करने की ठान ली।" राहुल बताते हैं। साथ ही आगे कहते हैं, "उत्तर प्रदेश में पहला कमर्शियल पॉली हाउस मेरा  ही था।"

 इनोवेटिव फॉर्मर्स अवार्ड और उद्यान रतन अवार्ड पा चुके राहुल मिश्रा का अपने गाँव से लगाव बचपन से ही रहा है। वह बताते हैं, "पिताजी सेना में थे और इस कारण हम पूरे देश में घूमते रहते थे, पर गर्मियों की छुट्टिïयों में गाँव ज़रूर आते थे। जिससे गाँव से लगाव शुरू से ही था। पढ़ाई-लिखाई पूरी करने के बाद 15 साल चार बड़ी कंपनियों में नौकरी भी की, पर अपने गाँव की मिट्टी की खुशबू कभी भूल नहीं सका। यही कारण है जब मौका मिला तुरंत ही गाँव पहुंच गया।

एमबीए पास मैनेजर से किसान बनने का राहुल का सफर बड़ा ही रोचक रहा। अचानक अपने गाँव पहुंचकर खेती करने के फैसले के बाद उन्हें काफी अनूठे अनुभवों से गुजरना पड़ा। वह बताते हैं, "काफी सर्दी पड़ रही थी और दो महीने हम खेत में लगे तम्बू में ही रहे। ठंडक और जंगली जानवरों से बचने के लिए रातभर आग जलाते थे, और ज्यादा सर्दी लगती थी तो अपने दो डॉग्स को चिपका कर रजाई में सुला लेते थे।" लखनऊ स्थित अपनी शॉप (गो ग्रीन फॉम्र्स) में बैठे राहुल के चेहरे पर संतोष का भाव तो जरूर है लेकिन इस सब के पीछे उनकी मेहनत साफ दिखती है।

वह यादों को ताजा करते हुए बताते हैं, "जब मैं गाँव पहुंचा तो लोग बड़े अचंभे में थे, वह सोच रहे थे कि मैं कर पाऊंगा भी कि नहीं, लेकिन मैंने अपने इरादों से साफ जता दिया कि भइया पीठ तो नहीं दिखाऊंगा। गाँव पहुंचने पर मैंने तालाब भरवाया और दो एकड़ जमीन पर खेती शुरू की। एक पॉलीहाउस लगाया और बाकी खुले में खेती करना शुरू कर दिया। जरबरेा की खेती पॉली हाउस में और रजनीगंधा की खुले में शुरू की।" कभी खेती तो की नहीं थी, इसके लिए भी अलग तजुर्बा है इनका, कहते हैं, "हमने पूरी खेती इंटरनेट से सीख-सीख कर ही की। जहां कहीं भी फंसते थे इंटरनेट पर सर्च कर लेते थे।"

राहुल आज विदेशों को फूलसप्लाई करते हैं, और उनके देश में बड़े-बड़े कस्टमर भी हैं, जैसे-बड़ी कंपनियों में और होटलों में इनके खेत के फूल खुशबू बिखेर रहे हैं। लोगों के ड्राइंग रूम में खुशबू बिखेरने के बाद अब राहुल फल और सब्जी की खेती के जरिए किचेन तक पहुंचने की तैयारी में हैं। जिसकी तैयारी उन्होंने कर ली है, और बहुत इसे शुरू कर देंगे।

  राहुल के इस मिशन में उनकी पत्नी रचना मिश्रा का पूरा साथ मिला। कॉलेज में साथ-साथ पढऩे से लेकर गाँव के खेतों में फूल उगाने तक रचना ने अपने पति का पूरा साथ दिया। राहुल ने जब रचना से गाँव जाकर खेती करने की बात साझा की तो उन्होंने इस फैसले का विरोध नहीं किया, बल्कि अपनी प्रिंसिपल की नौकरी छोड़ दी, पति का सपना पूरा करने के लिए उनके साथ गाँव गईं। कांच के शोरूम में गमलों में लगे पौधों की कांट-छांट में कर रही पत्नी रचना की ओर इशारा करते हुए राहुल कहते हैं, "हमारे इस काम में रचना का पूरा साथ मिला। कभी समय आया कि घाटा हुआ तो पैसे से भी मदद की।"

अपने नाम के अनुरूप आठ किताबों की रचना कर चुकीं रचना को कभी गाँव जाने से परहेज नहीं रहा। वह अकेले ही खेतों में जाकर वहां से फू और पौधे ले आती हैं। हालांकि गाँव तक पक्की सड़क होने की वजह से कार नहीं जाती। यह पूछने पर कि वह कैसे जाती हैं? तो दुकान के बाहर माल ढोने की गाड़ी की ओर इशारा करते हुए रचना कहती हैं, "मैं इससे ही जाती हूं, क्योंकि कार नहीं जा सकती वहां तक।"

1 comment:

  1. Awesome ... story and by this way we can keep the life in villages..


    thanks,
    ankit

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