Tuesday 26 February, 2013

बहुत रुलाती है गुरुजी की याद


करीबन 2 महीने हो गए 'गुरूजी' को गए हुए। मैंने उनसे सितार तो नहीं सीखा लेकिन पंडित रविशंकर को मैं और उनके कुछ और करीबी लोग गुरूजी ही बुलाते थे, हैं, और रहेंगे।
मेरे लिए ऐसा पहली बार हुआ है कि किसी के जाने के बाद भी मैं अब तक उनकी उपस्थिति को महसूस कर पा रही हूं। 2001 से मैं उनको जानती हूं और पिछले 12 साल में जाने कितनी बार उनके हाथ को पकड़ कर उनके साथ-साथ चली हूं। उन हाथों की सिलवटें, गर्माहट, खुशबू और प्यार भरा स्पर्श शायद सारी जि़ंदगी भूल नहीं पाऊंगी।

सारी दुनिया पं रविशंकर को उनके संगीत के लिए याद करेगी लेकिन मुझ जैसे कुछ लोगों के लिए तो वो एक बेशकीमती खज़ाना छोड़ गए हैं। उनके साथ बिताए बेहद खास और यादगार पलों का खज़ाना। डायनिंग टेबल पर बैठ कर उनके साथ खाना खाते वक्त की बातचीत, कितने भाव से वो खाना खाते थे, बनाने वाले की तारीफ करते थे, परोसने वाले को बार बार  ''थैंक यू बेटा'' कहते थे।

शाम को वो टहलने के लिए अपने कमरे से निकलते थे और हम छोटे बच्चे की तरह उनके पीछे-पीछे चल देते थे। इस उम्मीद में कि वो बीते दिनों की कोई मज़ेदार बात हमें बता देंगे और हम एक खट्टी मीठी टॉफ की तरह कई दिनों तक उसके चटखारे लेते रहेंगे।

कुछ देर टहलने के बाद वो आराम से हमारे साथ बैठते थे। जब मैंने उनके ऑफिस में काम छोड़ कर 2002 में ज़ी न्यूज़ ज्वाइन किया, तो उन्होंने मेरा नाम 'चा ज़ी' रख दिया और जब भी मैं उनसे मिलती, वो मुझे इसी नाम से बुलाते।

गुरूजी के बारे में सबसे हैरान करने वाली बात ये थी कि उस उम्र में भी, अमेरिका में रहने के बावजूद उन्हें भारत की हर बड़ी खबर पता होती थी। जब मैं उनसे मिलती तो वो मनमोहन सिंह से लेकर, सचिन तेंदुलकर, धोनी, शाहरुख खान, अमिताभ बच्चन तक सबके बारे में बात करते, अपने 'स्पेशल कॉमेंट्स' देते और अपने चिर परिचित मज़ाकिया अंदाज़ में कोई कोई तीर ज़रूर छोड़ते। कई बार तो मुझे लगता था 24 घंटे के न्यूज़ चैनल   में काम करने के बावजूद, मैं   गुरूजी से बहुत कम जानती हूं खबरों के बारे में।

2004 में उन्होंने सरस्वती पूजा के दिन, मेरी नन्ही बेटी (जो उस वक्त 3 साल की थी) से कहा कि कुछ गा कर सुनाओ हमको। इशिता ने अपनी तोतली बोली में गायत्री मंत्र गा कर सुनाया, गुरूजी और चिनम्मा, उनकी पत्नी सुकन्या शंकर के पैर छुए और शास्त्रीय गायकी के अपने सफ को उनके आशीर्वाद के साथ शुरू किया। तब से इशिता शास्त्रीय गायन सीख रही है और हर साल गुरूजी जब भारत आते तो मुझसे कहते, इशिता को कब ला रही हो मेरे पास? मुझे सुनना है उसको। वो हर साल बसंत पंचमी पर उनके सामने गाती 2012 की बसंत पंचमी को जब इशिता ने उनके सामने गाया तब हम में से किसी ने सोचा भी नहीं था कि आज हम आखिरी बार गुरूजी के साथ सरस्वती पूजा में शामिल हो रहे हैं। उस दिन वो कुछ ज़्यादा ही खुश थे क्योंकि उनका नाती ज़ुबिन भी था और हम सब उसकी मासूम शरारतों का मज़ा ले रहे थे। वो आखिरी बसंत पंचमी यादगार रहेगी। लेकिन हर साल जब बसंत पंचमी आएगी, पीले सिल्क के कुर्ते में मुस्कुराते गुरूजी की याद रुला कर जाएगी। जैसे इस साल गई।

मेरी जब भी गुरूजी से बात होती, वो एक हिदायत ज़रूर देते। इशिता से कहना गाना छोड़े, आज मुझे अहसास होता है कि उन्हें कितनी फिक्र थी इस बात की कि आने वाली पीढिय़ों के साथ कहीं शास्त्रीय संगीत खत्म हो जाए। इसलिए वो बच्चों को खास तौर पर प्रेरित करते थे कि वो संगीत सीखें। वर्ना जिस महान शख्सियत से हज़ारों लोग मिलना चाहते थे और जाने कितनी बार गुरूजी बड़े-बड़े लोगों से मिलने से भी मना कर देते थे, वो क्यों मेरी छोटी सी बेटी को सुनने के लिए अलग से वक्त निकालते। उसको सुनते, उसकी गलतियां बताते और हर बार उससे कहते कि चाहे कुछ भी हो जाए, तुम गाती रहना।

आज, 2012 में कही उनकी कुछ बातें खासतौर पर याद रही हैं। मार्च में दिल्ली के रविशंकर सेंटर में 4 दिन का म्यूजि़क और डांस फेस्टिवल था, मैं 4 दिन हर शाम वहीं होती थी, उनके पैरों के पास जाकर बैठ जाती थी। आखिरी दिन वो चिनम्मा से बोले-''10 साल हो गए चा को हमारे यहां से काम छोड़ हुए लेकिन इसने रिश्ता नहीं तोड़ा हमसे।'' फिर मेरे सर पर हाथ रख कर बोले, च्च्गॉड ब्लेस यू बेटा'  हम सब लोग बार बार यही सोचते हैं कि क्या गुरुजी को आभास था कि अब वो हमसे कभी नहीं मिलेंगे? उनसे मेरी आखिरी बातचीत स्काइप पर हुई अक्टूबर में। मैं लंदन में थी, वो बहुत बीमार थे, ऑक्सीजन लगी हुई थी, लेकिन मुझसे उन्होंने मेरे बारे में, मेरे परिवार के हर सदस्य के बारे में पूछा, सबका नाम याद रहता था उन्हें। मैं कहती रही गुरुजी अपना ख्याल रखिए। वो मुस्कुराते रहे। इतने कष्ट में भी उस प्यारी सी मासूम सी मुस्कान ने उनका साथ नहीं छोड़ा। आज उनकी वही मुस्कान मुझे रुलाती है।

पहले कई दिन खुद को ये समझाने की कोशिश की कि गुरूजी नहीं रहे। लेकिन मन नहीं माना तो आखिरकार  मैंने ये मान लिया कि गुरूजी जैसे लोग कहीं जाते नहीं। वो यहीं हैं। उनका संगीत यहीं है, उनकी खुशबू यहीं है, उनकी मुस्कान यहीं है और हमारे लिए उनके आशीर्वाद यहीं हैं।

(लेखिका आईबीएन-7 न्यूज चैनल में वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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