Wednesday 27 February, 2013

हमेशा याद आती हैं वो दो बेवकूफ औरतें


साल 2008 में अहमदाबाद धमाकों के बाद लेखक द्वारा लिखा गया यह लेख हैदराबाद बम धमाकों के संदर्भ में पुन: प्रकाशित किया जा रहा है।

मेरे दोस्त कहते हैं मैं अक्सर महिलाओं के खयाल में रहता हूं, सच कहते हैं।

देखो ना, जाने कब फटा था अहमदाबाद में बम, जाने कब आयी थी बिहार में बाढ़, फि भी दो औरतों को अपने साथ लिए घूम रहा हूं, पीछा ही नहीं छोड़तीं कमबख्त।

एक तो मर भी चुकी है। के ठेले के पास खड़ी थी, पीली साड़ी पहन कर, अमरूद ले रही थी, दाहिने हाथ में प्लास्टिक की थैली थी, बाएं हाथ में कुछ छोटे नोट दबा रखे थे। ठेले पर सेब भी थे, अनार भी, लेकिन अमरूद सस्ता होता है न।

अमरूद लिया नहीं, कि बम गया धड़ाम से। गिर पड़ी मुई, पीठ के बल, उसी अहमदाबाद के बाज़ार में, आतंकवादी ने किसी छोटे से कमरे में बैठ के जो बनाया था, उस बम से निकले पतले-पतले लोहे के टुकड़े उसके बदन को चीर गए। वाला भी मर गया बेकार में, रुपैय्या-रुपैय्या भाव-ताव करता था, अब पता चला आटे दाल का भाव। और वो पीली साड़ी वाली औरत, कौन जाने उसके मुंह से कुछ निकला होगा कि नहीं, '' बोली होगी क्या? सर जब ज़मीन से लड़ा तो धमक लगी होगी क्या? या तब तक मर गयी होगी? थैली से अमरूद बिखर गए, फैल गए दूर-दूर तक।

अक्सर सोचता हूं उसके बारे में। कौन पीछे उसकी राह देखता होगा उस शाम, किस गाँव की कितनी घोर गरीबी छोड़ कर उसका परिवार शहर आया होगा, ताकि कजऱ् से फांसी लगानी पड़े। किस से कह कर आयी होगी 'बस अभी आयी बेटा, अमरूद लाने जा रही हूं' कौन नाराज़ होता होगा, 'इत्ती देर हो गई, अमरूद लाने में, इत्ती देर लगती है क्या'? सच है, अमरूद लाने में इत्ती देर कहां लगती है? हां, मरने में  थोड़ा वक्त ज़रूर लग जाता है। धीमी-धीमी मौत मरते हैं ना इस मुल्क के करोड़ों लोग।

अहमदाबाद के उस बाज़ार से सैकड़ों मील दूर, बिहार के मधेपुरा जिले के लखीपुरा गाँव में रहती है दूसरी औरत मरी नहीं है अभी, हां मरने चली थी उस रोज़। गाँव आयी रक्षा नाव वापस जाने को थी, खाना बांट कर नेशनल डिज़ास्टर रेस्पोंस ोर्स के कमांडेंट डैनियल अधिकारी के पास खाने का आखिऱी थैला बचा था, और सारा गाँव भूखा था। जैसे ही थैला हवा मैं उछला, वो पागल औरत पानी में कूद गयी, पेट जो भरना था परिवार का। मर सकती थी, लेकिन भूख से मरने से तो ज़्यादा इज्ज़तदार होती ये मौत।

थैली उसके हाथ में आयी कि एक और आदमी कूद गया पानी में, लड़ते रहे वो कितनी देर तक, मुझे इस कहानी का अंत नहीं मालूम, पता नहीं उस पागल औरत के घर उस दिन रोटी बनी या नहीं, क्या पता अब तक जिंदा भी है या मर गई, अगली नाव की राह देखते-देखते। अक्सर दिल्ली में लाल बत्ती होने पर, गाड़ी में बैठे-बैठे भीख मांगने वाले बच्चों को देख कर सोचता था, अगर उन दो औरतों के बच्चे कभी भटकते हुए आमने-सामने मिल गए तो पता है क्या बोलेंगे एक दूसरे से?

'माँ को कभी घर से मत निकलने देना।'

4 comments:

  1. Speechless..... I wanna work for this kind of blog and sites ..... hope that this is being read by every one .... hope that one day will come where poor are also be treated as human being...

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  2. Touchy sir...
    I think politicians should read ur writings..shayad dil pr bat lage or unhe b smj A jae common public ki problems

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  3. neeleshji,you have touched the most sensitive chord again,here in this article which i feel like to call a literary piece instead of just an article!munshi premchand's spirit is visible in the soul stirring words of your's.GOD bless you and keep the things rational as you seem to excel there!!thanks.

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  4. ,,,m speechless nw U r Awwwssm sir,,,wat a type of telllng d stry its fntstic sir,,,,jst keep it sir

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