Monday 27 May, 2013
हम टैक्स देते हैं ताकि शहर गाँव जैसा लगे
प्रिय दद्दू,
हमने पिछले दिनों कहीं पढ़ा था दद्दू, कि किसी बड़े ज्ञानी पुरुष ने शोध के बाद ये कहा है कि हिंदुस्तान में बीस तीस साल बाद सिर्फ शहर ही मिलेंगे, गाँव नहीं मिलेंगे। उन्होंने कहा कि तमान फैक्ट्री, सड़क, नौकरियां सब गाँव तक पहुंच जाएंगी और शहर गाँव को लील लेगा। हमें ये बात सुन के बड़ा डर लगा कि अरे, हमारा गाँव अगर शहर बन गया तो हमारे खेत, हमारी पगडण्डी, हमारे बाग, हमारी नहर, हमारी पुलिया इन सब का क्या होगा?
लेकिन जब हमने और अधिक सोचा तो पाया कि दूर भविष्य में चाहे जो हो, लेकिन आज तो उल्टा हो चूका है दद्दु, भारत का हर बड़ा शहर एक गाँव ही तो है दद्दू!
आज कल हम ऐसे ही एक बड़े शहर के गाँव में हैं। काम ढूंढने आये थे। घर से दूर हैं, परिवार से दूर हैं, खेत खलिहान से दूर हैं, गाय गोरु से दूर हैं, किन्तु फिर भी अगर दिल की बात बताएं तो ये गाँव भी अपने गाँव से कुछ ज्यादा अलग नहीं है।
दद्दू यहां सबसे बढिय़ा हमें यहां की सड़कें लगती हैं। इतने गड्ढे हैं, इतने गड्ढे हैं, कि जब उन पे हम हिचकोले खाते हुए ऑटो में चलते हैं और ऑटो वाला रेडियो पे कोई बढिय़ा सा गीत लगता है, और जब मई की पसीनेदार हवा गाल पे लप्पड़ मारती चलती है और गर्मी के मारे कनपटी बॉईल होने लग जाती है, तब लगता है जैसे हम वापस गाँव पहुंच गए हैं, और अपनी ईंटे वाली खडंज़ा रोड पे किसी गर्मी की दोपहर में हम तीन पहिये की ठेलिया पे ब्रहस्पत की हाट से वापस घर जा रहे हों, रोटी गुड़ खाने। जितनी बार ऑटो रिक्शा किसी गड्ढे के ऊपर से गुजऱता है, हमें लगता है हम गाँव के एक मील और करीब आ गए हैं।
दद्दू, हमें तो कभी-कभी ये लगता है कि सरकार ने देश भर में शहरों की सड़कें इतनी खऱाब समाज के भले के लिए ही बनायीं हैं। ताकि शहर में रहने वाले हिंदुस्तानी भी गाँव को लगातार याद करते रहें। ये फैसला किसी बड़े मंत्री ने किन्ही बड़े-बड़े अधिकारियों के साथ बड़ी सी बैठक में लिया होगा। हम यहां मुंबई गाँव में बैठ कर गर्मी के थपेड़ों का थप्पड़ खाते हुए इस फैसले का अभिवादन और अनुमोदन करते हैं।
प्यारे दद्दू, यहां इस बड़े शहर के गाँव में लोग सड़क पर धीमे-धीमे कब्ज़ा करने में लगे रहते हैं। हमें अक्सर याद आता है कि कैसे गाँव में लोग मेड़ काटने में लगे रहते हैं ताकि खेत और थोडा बड़ा हो जाये। बस समझ लीजिये कि यहां मुंबई गाँव में भी लोग भकाभक मेड़ काटने में लगे रहते हैं। सड़क पे कभी झोपडिय़ां उग आती हैं, कभी घर। दद्दू ये तो हर शहर की कहानी है। और हमें लगता है ये भी समाज के हित में है। शहर को गाँव से जोडती है ये भावना। गाँव में भी मेड़ कटे, शहर में भी मेड़ कटे। मिले सुर मेरा तुम्हारा। है न सरकार की दूर की सोच? हमें लगता है कि अतिक्रमण भी गाँव और शहर को जोड़े रहने का एक बहुत बढिय़ा आईडिया है। ये फैसला भी सरकार ने बड़ा सोच समझ के लिया होग। हम गर्मी के थपेड़ों का थप्पड़ खाते हुए इस फैसले का अभिवादन और अनुमोदन करते हैं।
पीने का पानी यहां भी दद्दू अब मुश्किल से मिलता है। बहुत कमी है, अक्सर बिल्डिंग में पानी बंद हो जाता है, तब दद्दू पानी का इंतज़ार वैसे ही करना पड़ता है, जैसे तब करते थे जब आप कुंए पर जाते थे बाल्टी ले के पानी खींचने। जैसे हमारे यहां कभी लोग बैलगाड़ी पे चलते थे वैसे ही यहां भी लोग सड़कों पे बैलगाड़ी की ही रफ्तार से चलते हैं। इतनी गाडिय़ां हैं कि लगता है जैसे अभी-अभी परेवन का मेला छूटा हो या किसी शैतान बच्चे ने चींटी के बिल में हाथ दे दिया हो। न जाने किस बात का घमंड है शहर वालों को, दद्दू। हमसे ज्यादा बड़ा गाँव तो उनका है।
आपका
सड़क छाप
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment