Monday, 13 May 2013

क्या कुपोषण से लड़ पाएगा खाद सुरक्षा बिल?


मुकुल श्रीवास्तव 

खाद्य सुरक्षा विधेयक अभी भी कानून बनने के इंतज़ार में हैं, जिसके अंतर्गत गरीबों को सस्ता अनाज मुहैया कराने का वायदा किया गया है। ग्रामीण क्षेत्र में इस विधेयक के दायरे में 75 प्रतिशत आबादी आएगी, जबकि शहरी क्षेत्र में इसके दायरे में 50 प्रतिशत आबादी आएगी, वहीं देश में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता 2010 के मुकाबले 2011 में 25.8 ग्राम बढ़कर 462.9 ग्राम प्रतिदिन हो गई। 2010 में यह 437.1 ग्राम थी, यानि देश में खाद्य संकट नहीं है पर जो लोग अनाज उपजा रहे हैं वही भुखमरी और कुपोषण का शिकार हैं। 

किसी भी देश के अन्नदाता वहां के किसान होते हैं। जिनके खेतों में उगाए अन्न को खा कर राष्ट्र स्वस्थ मानव संसाधन का निर्माण करता है। आंकड़ों के आईने में देश ने काफ ी तरक्की की है पर वास्तविकता के  धरातल पर इस प्रश्न का उत्तर मिलना अभी बाकी है कि भारत के किसानों का परिवार कुपोषण और खराब स्वास्थ्य का शिकार कब और कैसे होने लग गए। जिसका सीधा असर बच्चों के स्वास्थ्य और बढ़ती बाल मृत्यु दर में हो रहा है। साल 2011 में दुनिया के अन्य देशों की मुकाबले भारत में पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की सबसे ज्यादा मौतें हुईं। ये आंकड़ा समस्या की गंभीरता को बताता है जिसके अनुसार भारत में प्रतिदिन 4,650 से ज्यादा पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु होती है। 

संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनिसेफ  की नई रिपोर्ट यह बताती है कि बच्चों के स्वास्थ्य के मामले में अभी कितना कुछ किया जाना है। भारत डायरिया से होने वाली मौतों के मामले में सबसे आगे है। 2010 में जितने बच्चों की मृत्यु हुई, उनमें 13 प्रतिशत की मृत्यु वजह की डायरिया ही थी।  रिपोर्ट के मुताबिक भारत जैसे देशों में डायरिया की मुख्य वजह साफ़  पानी की कमी और निवास के स्थान के आसपास गंदगी का होना है। गंदगी, कुपोषण और मूलभूत स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव मिलकर एक ऐसा दुष्चक्र रचते हैं जिनका शिकार ज्यादातर गाँवों में होने वाले बच्चे बनते हैं। सरकार का रवैया इस दिशा में कोई खास उत्साह बढ़ाने वाला नहीं रहा है देश के जीडीपी का 1.4 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च किया जाता है। सरकार ने इसे बढ़ाने का वायदा तो किया पर ये कभी पूरा हो नहीं पाया। 

साल 2008 में आयी स्टेट फू ड इनसिक्योरिटी इन रूरल इंडिया की ये रिपोर्ट के अनुसार भारत की कुल जनसंख्या का इक्कीस प्रतिशत हिस्सा कुपोषण का शिकार है जाहिर तौर पर इस संख्या में बड़ा हिस्सा भारत के ग्रामीण तबके का है। जो अन्न वो अपने खेतों में उपजाता है उसकी सही कीमत उसे नहीं मिलती और उसका फ ायदा बिचौलिए उठाते हैं। अन्न की सही कीमत न मिल पाने का कारण आर्थिक रूप से किसान की स्थिति में कोई आश्चर्यजनक बदलाव नहीं होते। वो अपने ही उगाए अन्न से दूसरों को पोषण देता है पर खुद का परिवार कुपोषित होता रहता है। कुपोषण का परिणाम स्वास्थ्य संबंधी विभिन्न समस्याओं के रूप में सामने आता है और गाँवों में स्वास्थ्य सुविधाओं की हालत किसी से छुपी नहीं हैं। ऐसे में किसान सब कुछ नियति का खेल मान निर्धनता, कुपोषण और अशिक्षा के दुष्चक्र में घूमने के लिए अभिशप्त रहता है। इसके सबसे ज्यादा शिकार छोटे और मझोले किसान होते हैं। कृषि उत्पादन में स्थिरता, कृषि लागत में बढ़ोत्तरी के परिणाम स्वरूप पैदा हुए आर्थिक संकट ने किसानों की आय घटा दी है। सस्ते कर्ज की अनुपलब्धता की स्थिति और भी जटिल बना देती है। 

सरकारी नीतियां बड़े किसानों, चुनिंदा नगदी फ सलों और ऊंची लागत वाली कृषि उत्पादन पद्धति को महत्तव देती हैं। देश को अभी भी अपने अन्नदाता का पेट ही नहीं भरना है बल्कि उसे एक बेहतरीन मानव संसाधन में भी बदलना है जिससे भारत गर्व से कह सके कि हमारी अर्थव्यवस्था कृषि आधारित है।  
(ये लेखक के अपने विचार हैं

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