Tuesday 16 April, 2013
सब कुछ करके भी नहीं जताती मां
मैंने पूरी जि़न्दगी सिफऱ् एक ही इंसान पर इस तरह से अपना अधिकार समझा है कि उसे कऱीब-कऱीब ग्रान्टेड लेकर चलती हूं। ग्रान्टेड का कोई हिंदी अनुवाद नहीं हो सकता। अपना अधिकार समझ कर जायज़ नाजायज़ सब मांग बैठने, सब करवा लेने और फि र भी आभार व्यक्त न करने के अहसास के लिए ग्रान्टेड से बेहतर किसी भाषा में कोई शब्द होगा, मुझे शक़ है इस बात का। बहरहाल, जिस शख्स को ग्रान्टेड लिया उसका नाम था मम्मी। हां, मम्मी। मां का नाम कहां होता है ? वो तो मां होती है। मम्मी। अम्मा। मां।
मेरी मां का भी कोई नाम रहा होगा, ये बहुत बड़े होने पर समझ आया। घर में सब उनको दुलहिन बुलाते थे। पापा 'ऐ सुन तारू' (ऐ, सुन रही हो?) के संबोधन से आवाज़ लगाते थे। मां, मायके वालों के लिए वो बबुनी थी। बाकी दुनिया जहान के लिए भाभी, चाची। हमारे लिए सिर्फ मम्मी। मेरी मम्मी बहुत अच्छी बहू थीं। कमाल की बहू। मम्मी सुबह 6 बजे चौके में लग जातीं। अपने कमरे से झांककर देखतीं कि बाबा मॉर्निंग वॉक के लिए निकले हैं या नहीं। फि र पूरा दिन एक टांग पर खड़े होकर चौके में चूल्हा झोंकने में बीतता। पूरे परिवार के लिए तरह-तरह का खाना-नाश्ता बनता और दोपहर बारह बजे नहाने-धोने, पूजा-पाठ करने के बाद मम्मी की प्लेट में पडऩे वाले खाने में कभी सब्ज़ी गायब होती, कभी दाल। पूरे दिन रसोई में जूझने, दाल और सब्ज़ी में नमक-मिर्च की आलोचना सुनने के बाद बचा-खुचा खाने की उनकी इस आदत को देखते-देखते मैंने तय किया खाना बनाना और खिलाना दुनिया का सबसे ग़ैर-ज़रूरी और वाहियात काम होता है।
मेरी मम्मी बहुत अच्छी बीवी भी थी। शिकायत न करनेवाली। साड़ी, कपड़े, गहने की बेजा मांगें न रखने वाली। घुट-घुटकर जीने वाली लेकिन आवाज़ न उठाने वाली। उन्हें आर्थिक रूप से औरों पर निर्भर होने का दुख था। मैंने इक्कीस साल में ही नौकरी शुरू कर दी। मेरी मम्मी उतनी ही अच्छी मां थी। बच्चों को इंसान बना देना, उनके मुकाम पर पहुंचा देना वो काम होता है जिसकी कद्र नहीं होती। न वक्त की, न मेहनत की। मैं अपने बच्चों को अक्सर अपनी अहमियत जता दिया करती हूं।
मम्मी त्याग की प्रतिमूर्ति थीं। उनसे कोई भी चीज़ कभी भी मांगकर देखो, मना नहीं करेंगी। इसका फायदा घर-परिवार तो दूर, अड़ोसी-पड़ोसियों ने भी जमकर उठाया। नतीजतन, उनकी शॉल कई पार्टियों में अलग-अलग लोगों ने ओढ़ी (उन्हें पार्टी में जाने की इजाज़त नहीं थी), साडिय़ों पर कभी मिठाई का रस, कभी मटर-पनीर की हल्दी गिरी, कानों के बूंदे उतरे, गले की चेन उतरी। मैं ख़ुदगजऱ् तो नहीं, लेकिन दरियादिल भी नहीं।
मम्मी को पैंतीस साल में यूट्रस कैंसर हुआ, मौत से जूझकर निकलीं और फि र एक हज़ार बीमारियों का घर बनाकर चलती हैं खुद को। इस बात से मैंने इतना सीखा है कि हर दो महीने पर अपने शरीर से पूछो, तबीयत और मिज़ाज दुरुस्त तो हैं, कहीं मदद की ज़रूरत तो नहीं? दूसरा, आंख मूंदना सीख लिया है। आप दुनिया को अपने हिसाब से नहीं चला सकते और ख़ून इतना भी सस्ता नहीं कि गंदे तवे और बेलन के लिए जलाया जाए।
मम्मी बेहद धार्मिक हैं और बिना नहाए और पूजा किए एक दाना भी मुंह में नहीं डालती। मैं नास्तिक नहीं लेकिन कर्मकांडों में यकीन नहीं करती। मम्मी साल में कम-से-कम 150 दिन व्रत करती हैं, कोई एकादशी प्रदोष नहीं छोड़तीं। मुझसे दो घंटे भी भूख बर्दाश्त नहीं होती। मम्मी तीर्थ और मंदिर दर्शन को अपने जीवन का इकलौता उद्देश्य मानती हैं, मैं तीर्थस्थानों पर भी पर्यटन स्थल ढूंढती हूं। मम्मी त्याग और बलिदान की भाषा बोलती हैं, मैं हक़ का झगड़ा करती हूं। मम्मी टूट-टूटकर संयुक्त परिवार बचाए रखने में यकीन करती हैं, मैं खुद को बचाए रखने की सलाह देती हूं।
बावजूद इसके मम्मी को ग्रान्टेड लेकर चलती हूं। मम्मी की पहचान अभी भी ज़्यादा नहीं बदली। नानी और सास की उपाधियां जुड़ गई हैं बस। सबकी मम्मियां ऐसी ही होती हैं क्या? सब बेटियां ऐसे ही बदल जाती हैं? मेरी मम्मी का नाम प्रतिभा सिंह है। प्रतिभा, यथा नाम तथा कर्म। आपकी मां का नाम क्या है?
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