Tuesday 30 April, 2013

बॉलीवुड के गानों में हमेशा से गूजते रहे हैं गाँव


मुंबई। गाँव, गाने और बॉलीवुड इन तीनों में बहुत पुरानी रिश्तेदारी रही है। बॉलीवुड  और गाँवों का रिश्ता हमेशा गिव एन्ड टेक का रहा है। गाँवों से बॉलीवुड  ने अपनी फिल्मों के लिये भौगोलिक, चारित्रिक और वैचारिक स्तर पर बहुत कुछ लिया है। इसे आसान शब्दों में कहें तो गाँवों की गलियों से हमारी फि ल्मों ने पात्र उठाये, गाँव के भूगोल को फिल्मों ने अपने भूगोल में शामिल किया और गाँवों से ही कई फि ल्मों के आईडिया फिल्मकारों के दिमाग में हलचल करते रहे।  

इस पूरी प्रक्रिया में गाँव के शब्दों से लेकर गाँव के आचार व्यवहार तक का आदान प्रदान किया गया ऐसे में फि ल्मी गाने तो इस आदान प्रदान की जद में आने ही थे। कभी कोई परदेसी बाबू गाँव गया तो उस पर गाँव की गोरी का दिल आ गया और उसने जिस भाषा में अपनी मुहब्बत का बयान किया वो खालिस गाँव की भाषा थी। कभी कोई गाँव का बाबू शहर गया तो उसे शहर की लड़की को देखकर जो मासूम सा प्यार हुआ उसे बयां करने के लिये उसके पास जो भाषा थी वो गाँव की ही भाषा थी। ऐसे में फि ल्मों के ज़रिये शहर गाँव आता रहा और गाँव शहर जाता रहा। इस भौगोलिक और सांस्कृतिक यात्रा में जो चीज़ हमेशा गतिमान रही वो थी गीत-संगीत और उसकी भाषा। 


बॉलीवुड के गानों में आया गाँव वाला इस्क


बॉलीवुड हमेशा ये समझने-समझाने की कोशिश करता रहा है कि गाँवों में प्यार की शक्ल-ओ-सूरत आखिर कैसी होती रही होगी? या फि र ये कि प्यार को बयां करने के कौन कौन से तरीके गाँव ईजाद कर पाया होगा जिन्हें फिल्मों में जगह दी जा सके। फि ल्मी गीत इन कोशिशों की झलकियां लगातार देते रहे हैं। वो चाहे 'परदेसी परदेसी जाना नहीं' की गुहार हो जो एक बंजारन के जरिये आप तक पहुंचाई गई हो या फिर 'पड़ोसी के चूल्हे से आग लई ले सरीखी गुलज़ारियत भरी शैतान सलाह। या कि सरहद पर बैठे फौजी को आई चिट्टी  िसके जरिये उससे गाँव की गलियों ने पूछा है कि 'घर कब आओगे? कभी 'इस्क का नमक तो कभी 'जिगर से बीड़ी जलाने' का मनुहार। प्यार करने के ऐसे बेहद रस्टिक या जिसे कहें खांटी देसी तरीके फिल्मी गीतों ने लगातार पेश किये हैं। गाँवों का मासूम प्यार तो खैर पुराने समय से फि ल्मों का हिस्सा रहा ही है लेकिन ग्रामीण परिवेश और गाँवों की भाषा में परोसे जाने वाले आईटम नम्बर अब बदस्तूर किसी न किसी तरह से फि ल्मों में अपनी जगह बना रहे हैं। एक ओर 'चिकनी चमेली, 'हलकट जवानी, 'शीला, 'मुन्नी जैसे सतही स्तर के आईटम सौंग भी पसंद किये गये तो वहीं 'गली के बनिये से मिलने वाली उधारी से उपजा 'इस्क हो या 'श्याम रंग बुम्बरो वाली गाँव की मुहब्बत या फिर 'सपनों की अग्नि से 'दो अंखियों के आलने जलाये जाने की हद तक गहरा प्यार जब वो फिल्मों में आया तो खूब सराहा गया।

शहर के शब्द भी ढ़ाले गये गाँवों की ज़बान में 

फिल्मी गानों की भाषा में जहां एक ओर गाँव के शब्द आये तो वहीं दूसरी ओर शहरों की ज़ुबान भी गाँवटी लहज़े में ढ़लती दिखाई दी। 'सेंटियाने से लेकर 'रोंगवा को 'राइटवा करने सरीखी बातें गीतों की भाषा में शामिल होने लगी। स्नेहा खनवलकर ने बिहार के गाँवों में जाकर गाँव की धुनें खोजी तो वरुण ग्रोवर गाँव से लहज़ा खोज लाये। और गाँव की औरत 'वुमनिया हो गई जिससे 'बदले रुपैय्या के देना चवनिया' जैसी बातें गानों के ज़रिये कही जाने लगी। पीयूष मिस्रा 'दूर देस के टावर में ऐरोप्लेन घुस जाने की वैश्विक घटना को गाँव की भाषा में समझाने लगे। गाँव के 'राना जी' का गुस्सा गाँव और देश की सीमाओं को लांघकर ईराक और अफगानिस्तान तक जा पहुंचा। यहां तक कि पान सिंह तोमर में पुर्तगाली मूल की पंक्ति से प्रेरित होकर 'मैमय्या केरो केरो केरा मामा' तक शामिल कर लिया गया। इन गानों में शहर और यहां तक कि विदेश तक गानों की प्रेरणा बने पर भाषा वही रही-निहायत गाँवटी। 


गाई गई गाँव की परेशानियां भी  


गीत जब गाँवों की जिन्दगी की झलकियां देने पे आये तो गाँवों की परेशानियां भी उनसे अछूती न रही। पीपली लाईव में महंगाई डायन का गाँवटी लहज़े में आना इस बात की बानगी पहले ही पेश कर चुका है। गाँव की मंडलियों में गाये जाने वाले गीतों की शक्ल में जब ये गीत फिल्माया गया तो इसने देश की 70 फीसदी आबादी को अपना मुरीद बना लिया। 'बासमती धान मरी जात है' से लेकर 'सोयाबीन का बेहाल' और 'मक्का जी की मात' पर बात करते इस गाने की लोकप्रियता ने ये साबित कर दिया कि गाँव की दिक्कतों का फर्क बहुत गहरा है। उससे केवल गाँव ही नहीं शहर के लोग भी जुड़ाव रखते हैं। उससे पहले लगान में 'काले मेघा' को 'पानी बरसाने' की गुहार करते ग्रामीणों से दर्शकों ने गहरा रिश्ता बनाया। गाँव की परेशानियों को गीतों में ढ़ालकर कहे जाने का चलन बॉलिवुड में आया तो इसकी वजह साफ है- बड़ी आबादी को अपनी ओर रिझाना।



फिल्में जिनमें आये गाँव के गाने  


'मटरु की बिजली का मंडोला', 'पीपली लाईव', 'वेल्कम टु सज्जनपुर', 'लगान', 'इश्कियां', 'पहेली', 'दबंग', 'ओमकारा', 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' जैसी ग्रामीण परिवेश को ध्यान में रखकर बनी कमोवेश सभी फिल्मों के गानों में गाँव के लहजे का बखूबी इस्तेमाल किया गया। गैंग्स ऑफ वासेपुर में वरुण ग्रोवर के लिखे हुए गानों में तो गाँव कूट कूट कर भरा हुआ दिखाई देता है। 'तार बिजली से पतले हमारे पिया का जिक्र हो या फिर 'मूरा' को 'नर्भसाने से मना करने जैसी बात हो, इस बीच आई फिल्मों में गाँव के शब्दों को प्रयोगधर्मिता की हद तक गानों में प्रयोग किया गया जिससे साबित हो गया कि गाँव बॉलीवुड  में कभी भी आउटसाईडर नहीं हो सकते।




हर देश का भेष पहुंचा फिल्मी गानों में 


दार्जिलिंग की वादियों से गुजरती हुई पटरियों पर उत्तर पूर्व की भाषा की महक लेकर आता 'कस्तो मज़ा है रेलई मा, रमईलो उकाली उराली' हो या पंजाबी फील देता 'तेरा रु कतिया करुं' (रॉकस्टार) या फिर बिहार की ज़बान में गाया गया गैंग्स ऑफ वासेपुर का 'तनि नाची गाई सबके मन बहलावा रे भईया', देश के हर हिस्से को गानों में जगह मिलती दिखाई देना अच्छे संकेत देता है। 'सबसे बड़े लड़ैय्याÓ या फिर 'मनवा चुराईस तोरा' जैसे उत्तर प्रदेश की अलग अलग डाईलेक्ट वाले लहज़े को सुनकर यही लगता है कि बॉलिवुड के गाने घाट घाट का पानी पीने को बेताब बैठे हैं। ऐसे में गाँव की भाषा और बोलजचाल के शब्दों को भी ग्लोबल होने का मौका मिला है।  इस तरह से देखें तो गानों की भाषा को 'शहर के जादू' ने बेकाबू तो किया है लेकिन फिल्म इन्डस्ट्री 'को वक्त वक्त पर ये भी समझ आता रहा कि 'बात जो गांव में है, पीपरा की छांव में शहर में वो कहां रेÓ। इसलिये बॉलिवुड के गानों की लोकप्रियता की जब भी बात आयेगी देश की 70 फीसदी आबादी यानी गाँव की ज़बान तब तक दबी ज़बान में ही सही, लोगों के होंठों पर थिरकती रहेगी।



गाँव को गानों तक पहुंचाने वाले ये लोग 


गाँव से जुड़े शब्दों को गानों में लाने की जब भी बात आती है तो गुलज़ार सबसे पहले याद आते हैं। पहेली का 'रब राखा बेलिया' सुनिये तो मालूम पड़ता है कि कैसे गुलजार मरुस्थल से भी गाँव की खुशबू लिये रसीले गाने निकाल लाते हैं। 'देह की रेती उड़ जावेगी, प्रीत सदा रह जावेगी, समय गुजर जावेगा बाबू, लोककथा रह जावेगी'। गाँव के लोक से आई लोककथाओं का यही अद्भुद संसार है जो समय के गुजरने और हर तरह से बदलने के बावजूद अब भी फिल्मी गानों में रह गया है। 

जिसके लिये जगह शायद तब तक तो खत्म नहीं होगी जब तक बौलिवुड में गानों की जगह खत्म नहीं हो जाती। पीयूष मिस्रा, कुछ हद प्रसून जोशी और जावेद अख्तर के गानों में भी जऱा जऱा गाँव देखने को मिल जाता है। वहीं गायकी में रेखा भारद्ववाज, सुखविन्दर, पीयूष मिस्रा और      रघुवीर यादव सरीखी कुछ आवाज़ें हैं जो लगता है कि गाँव के लहज़े में गाये जाने के लिये ही      बनी हैं। इन गायकों की लोकप्रियता भी ये बताती है कि गाँव बॉलिवुड के लिये हमेशा प्रासांगिक रहेंगे। 

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