Tuesday 5 March, 2013

तस्करी के जाल में कैद होती बेटियां


 शादिया अज़ीम

सुंदरबन (पश्चिम बंगाल) रिंकी महज़ सोलह साल की है पर अपनी उम्र से बहुत ज़्यादा समझदार है। रिंकी उन आठ लड़कियों में से है जिन्हें दो साल तक घर से दूर गुमनामी का जीवन जीने के बाद बचाया गया। रिंकी गाँव से बाहर शहर के एक घर में काम करने गई थी, माता-पिता से संपर्क टूटने के बाद से रिंकी लापता थी।
"हमें नहीं पता था वो कहां काम करती है हमें तो शुरुआत में ही दो महीने की पगार के तौर पर पांच हज़ार रुपए एडवांस मिल गये थे। वो लोग डॉक्टर थे और भले लोग लग रहे थे। लेकिन उनके तबादले के बाद हमे कुछ पता नहीं चल पाया की हमारी बेटी को कहां छोड़ा गया।" रिंकी के माता-पिता याद करते हुए बताते हैं। रिंकी का परिवार पश्चिम बंगाल के पुरुलिया में जिला मुख्यालय से लगभग 70 किलोमीटर दूर कपूरिया नामक गाँव में रहता है।

एक स्थानीय गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) ने जब कई बार पुलिस में शिकायतें दर्ज करवाईं तो पता चला कि रिंकी को नई दिल्ली में पहाडग़ंज नाम की जगह पर स्थित एक गंदे से मकान से छुड़ाया गया था। इस मकान में रिंकी एक गुलाम की तरह काम कर रही थी जहां उससे शारीरिक छेड़छाड़ भी की जाती थी और भर पेट खाना भी नहीं दिया जाता था। बचाये जाने के बाद से रिंकी नई दिल्ली के ही एक आश्रम में रह रही थी जहां से उसके परिवार वाले पिछले साल उसे घर लिवा लाये।

रिंकी का हौसला ऐसा कि एक बुरे सपने सी हकीकत जीने के बाद भी वह दोबारा तैयार है काम करने के लिए। अपने घर से फिर एक बार दूर जाकर किसी और का घर चमकाने में उसे कोई परहेज़ नहीं क्योंकि इससे उसके घर में पैसे आयेंगे जिसकी उसके परिवार को सख्त ज़रूरत है। "घर का काम करने के अलावा मेरे पास और कोई विकल्प नहीं है। गाँव में भी मैं नहीं रह सकती क्योंकि यहां सबको पता है कि मेरे साथ क्या हुआ था और मुझे वैसे भी मेरे परिवार के लिए कमाना ही पड़ेगा।" सोलह साल की रिंकी मजबूरी बताते हुए आगे कहती है, "यही एक ऐसा काम है जो मुझे अच्छे से आता है।"

आरती बाईस साल की है। दिल्ली में सात साल के लंबे समय तक काम करने के बाद वह अपने परिवार के पास सुंदरबन के एक छोटे से गाँव संदेशखली लौट आई है। लेकिन जब वह वापस आई तो उसके जाने का कोई ठिकाना नहीं था क्योंकि यह गाँव लैला नाम के समुद्री तुफान में बर्बाद हो गया था। उसके माता-पिता की मृत्यु हो चुकी थी और उसके पास अपने भाई-बहनों का कोई अता-पता नहीं था। "मेरा गाँव तूफान में बर्बाद हो गया था, जहां हमारा घर हुआ करता था वहां अब दूसरे रहते हैं," आरती बताती है। अब वो उसी आदमी के साथ रहती है जिसने उसे दिल्ली में काम करने के लिए भेजकर उसके परिवार से अलग कर दिया। "उसका भी कोई परिवार नहीं है इसलिए मैने समझौता कर लिया उसके साथ। और कहां जाउंगी मैं अब?," आरती लजाते हुए मानती है कि जिस आदमी की वजह से उसकी यह स्थिति हुई है वह अब उसका रक्षक है।

कुछ समय पहले पहाडग़ंज की उन्हीं गंदी गलियों से पुलिस ने निर्मला नाम की एक और लड़की को भी बचाया था। उसे लड़कियों के एक तस्कर को बेच दिया गया था। बेचने वाला भी और कोई नहीं बल्कि उसी के परिवार का सदस्य था जो उसे अच्छी नौकरी का दिलासा देकर शहर लाया था। दिल्ली आने के बाद कुछ दिन तक उसने एक घर में साफ-सफाई का काम किया लेकिन धीरे-धीरे वह मानव तस्करी के घुप्प अंधेरे में खोती गई। अच्छे जीवन की चाह में या गाँवों के माहौल से तंग आकर सुंदरबन, पश्चिम बंगाल के उत्तरी भाग, झारखण्ड और सिक्किम जैसी जगहों से लड़कियां महानगरों में बसे घरों में काम करने जाती हैं। कई बार खुद से तो कई बार किसी एजेंट या एजेंसियों से जुड़कर। ये एजेंट और एजेंसियां पहले तो इनके पास आने वाली लड़कियों को काम दिलवाती हैं पर बाद उन्हें देह व्यापार की अज्ञात और अंधेरी दुनिया में बेच देती हैं।

यह कहानियां कुछ ऐसी लड़कियों की हैं जो अलग-थलग, कैद और उपेक्षा का जीवन जीने के बाद भी वापस अपने घर आने में सफ हुईं। काम खोजने के सीमित दायरे के साथ श्रमिक महिलाओं का एक बड़ा समूह अब शहरों की ओर रुख कर रहा है जो क्षेत्र से पलायन करने वालों का एक बड़ा हिस्सा है। घरों में काम करने के लिए लड़कियों को भर्ती करने वाली एजेंसियों का जंजाल बहुत बड़ा है और ये ढेरों तरीकों से महिलाओं और लड़कियों को लुभाती हैं। जो भी व्यक्ति इन लड़कियों को अपने घर में काम पर रखता है वह सीधे एजेंटों को रुपए देता है की लड़कियों को। कई बार तो भर्तीकर्ता सीधे एजेंसियों को पेमेंट देते हैं लड़कियों को उनके घर भेजने के लिए जहां उनसे अभद्र व्यवहार के साथ-साथ शारीरिक छेड़छाड़ भी की जाती है।

ऐसे भी उदाहरण सामने आये हैं जिनमें लड़की ने अपने एजेंट से ही शादी कर ली और किसी महानगर में बसकर अपने शादी-शुदा जीवन को चलाने की कोशिश कर रही है जैसे कि आरती। लेकिन ज़्यादातर केसों में पति या तो महिला को बेच देता है या उन्हें कैद जैसे माहौल में रखता है जहां से वो बचकर नहीं निकल पातीं। 
"मौका पाते ही काम लिए बाहर निकल पडऩे के अलावा उनके पास ज़्यादा विकल्प नहीं होते। जिन परिवारों में वो काम करती हैं उनको लड़कियों की पृष्ठभूमि के बारे में कुछ नहीं पता होता इसलिए वह लड़कियों पर संदेह करती हैं। काम करने वाली इन लड़कियों को भी बाहर की दुनिया के बारे में बहुत कम जानकारी होती है इस कारण यह अपने परिवार से भी संपर्क नहीं कर पातीं।," रीमा साहा समझाती हैं जो कि 'हर इनीशिएटिवÓ नाम के एक गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) से जुड़ी हैं। यह एनजीओ अकुशल महिलाओं को नौकरी के अवसर दिलाने के साथ-साथ उनके उत्थान के लिए काम करता है। रीमा आगे कहती हैं, "यह सच है कि वो कई बार कैद जैसी अवस्था में घरों में काम करती हैं लेकिन इस बात की भी बहुत सम्भावनाएं होती हैं कि वो देह व्यापार के दलदल में फंस जायें।"

कोलकाता के एक कुख्यात रेड लाईट क्षेत्र में शम्पा से मुलाकात परेशान करती है। उसकी दो साल की बच्ची है घर पर। लेकिन पति की एक ट्रेन एक्सिडेंट में मृत्यु के बाद उसके पास कोलकाता आकर घरों में साफ-सफाई का काम करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा था। उसके एक जानने वाला एजेंट शंपा को बहला-फुसलाकर पश्चिम बंगाल की बदनाम 'सोनागाची' की गलियों में ले आया जहां देहव्यापार करने वाली महिलाएं पहले से ही अपने हक के लिए लड़ रही हैं।

"मैं यहां ज़्यादा कमा लेती हूं," शम्पा बताती है। उसने अपने इस काम के लिए अब एक जगह किराए पर ले ली है, वह आगे बताती है, "मेरे गाँव में कोई नहीं जानता कि मैं यह काम करती हंू। यह काम मेरा पहला विकल्प नहीं था। मैं अपनी बच्ची के लिए सम्मान के साथ कमाना चाहती थी लेकिन आया का काम करने के समय बनी मेरी कुछ दोस्त मुझे यहां ले आईं। उन्होंने मुझे यह कहकर आने के लिए तैयार किया था कि बहुत कम मेहनत करके अच्छा पैसा मिलेगा। अब जब मैं यहां ही चुकी हूं तो मुझसे कोई यह आशा कैसे कर सकता है कि मैं वापस जाकर इज़्ज़त की जि़ंदगी जियूं।"

मल्लिका भी पंद्रह साल की एक ऐसी ही लड़की है जो इतनी खुशकिस्मत नहीं थी कि इस अंधेरे से निकलकर वापस अपने घर जा पाये। मल्लिका पश्चिम बंगाल के सुंदरबन क्षेत्र की रहने वाली है। उसे उसकी मां ज्योति ने पति के दूसरी शादी कर लेने के बाद काम करने के लिए गाँव से बाहर भेजा था। "परिवार चलाने के लिए मेरे सामने और कोई चारा नहीं बचा था, मैं चाहती थी कि मल्लिका पढ़े पर जिस परिवार में मैंने उसे काम पर लगवाया था उसने मल्लिका को बंगलुरु भेज दिया। शुरुआत में तो कुछ दिन मेरी उससे बात हो पाई पर अब मेरे उससे कोई संपर्क नहीं हो पा रहा। उस परिवार का मेरे पास एक ही नंबर है जो अब बंद हो चुका है। मुझे किसी ने यह भी बताया कि वो लोग अब देश के बाहर कहीं चले गये हैं। बल्कि मेरा रिश्तेदार जो मेरी बेटी को बंगलुरु लेकर गया था वो तो कह रहा था कि लड़की कहीं भाग गई। मुझे कुछ नहीं पता कि वो कहां गई होगी? और किस हालत में है?" मल्लिका की मां ज्योति बताती हैं।

इसी तरह सुंदरबन क्षेत्र की फिरोज़ा बीबी एक घरेलू एनजीओ की मदद लेकर अपनी सोलह साल की बेटी को खोजते-खोजते कोलकाता हाई कोर्ट तक पहुंच गईं। उनकी बेटी 2007 से गायब है जिसकी पुलिस ने तफ़्तीश नहीं की। लड़की का अभी तक कोई अता-पता नहीं, कोर्ट में जब इस पर बहस हुई तो पुलिस ने भी इस तथ्य को माना कि पश्चिम बंगाल से 5 हज़ार लड़कियां गायब हैं जिनका अब तक कोई पता नहीं लगाया जा सका है। गुमशुदा लड़कियों में से ज़्यादातर अपनी किशोरावस्था में हैं। क्षेत्र में एक और खतरनाक प्रवृत्ति पनप रही है और वह यह कि अब किशोरावस्था से भी छोटी उम्र की ग्रामीण लड़कियां मजबूरियों के चलते पैसा कमाने के लिए प्रवास करने लगी हैं।

वास्तव में हावड़ा, उत्तरी-दक्षिणी 24 परगना और पुरुलिया जिलों से लड़कियां गायब हुईं हैं और इनकी संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। पश्चिम बंगाल के मिदानपुर जिले की रहने वाली सरस्वती नई दिल्ली के एक तथाकथित अच्छे परिवार में काम करती थी और पिछले एक साल से लगातार घर पैसे भेज रही थी। उसके माता-पिता के पास संपर्क करने का कोई साधन नहीं था इसलिए जब पैसे आना बंद हो गये तो वो 'बाल संरक्षण समूह' के पास पहुंचे। यह समूह अब बहुत से गाँवों में बाल तस्करी के खिलाफ  काम कर रहा है पर इसके लोग भी सरस्वती का पता नहीं लगा सके। "यह एक गिरोह की तरह काम करती है। कई बार परिवार काम दिलाने वाले एजेंट जो क्षेत्रीय भाषा में 'ठेकेदार' कहलाता है उसकी बात मानकर चुप होकर बैठ जाते हैं। इन ठेकेदारों को तो पहले ही पैसे मिल चुके होते हैं। कुछ समय बाद जब परिवार वालों को पैसे मिलना बंद हो जाते हैं संपर्क का कोई साधन भी नहीं होता तब उन्हें यह एहसास होता है कि बच्ची खो गई है। तब ये लोग बाल संरक्षण समूह के पास आते हैं जो पुलिस के साथ मिलकर बच्ची को खोजता है। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है, कई एजेंटों के चंगुल में फंस चुकी होती है इसलिए उसे खोजना बिल्कुल आसान नहीं होता।" 24 परगना जिले के दक्षिणी क्षेत्र में बसे सुंदरबन के पाथर प्रतिमा ब्लॉक में स्थित बाल संरक्षण समूह के आकाश बताते हैं।

'सेव चिल्ड्रेन' नाम का एक एनजीओ सुंदरबन क्षेत्र के लगभग चालीस गाँवों को तस्करी के चंगुल से छुटाने के लिए काम कर रहा है। इस एनजीओ की एक रिपोर्ट के अनुसार 24 परगना के उत्तरी भाग में लगभग 265 गाँव हैं जिनके लगभग 60 प्रतिशत घरों में बच्ची गायब होने की कोई कोई घटना हो चुकी है। सुंदरबन क्षेत्र के संदेशखली पुलिस स्टेशन में लड़कियों के खो जाने के 300 से ज़्यादा केस लंबित है।  
"वास्तव में यह एक सामाजिक बुराई है तो जो समाज इसे अपनाता है उसे उसे अपनी बच्चियों को खोने का सदमा झेलना पड़ता है। हमने पाया है कि जो गांव इससे छुटकारा पाने में सफल हो गये वहां बाल तस्करी लगभग खत्म हो गई। वहां रहने वाली बच्चियां और ऐजेंट अपने क्षेत्र में जीविका कमाने की टिकाऊ और सम्मानजनक युक्तिओं को अपना रहे हैं। लेकिन अब हमारा लक्ष्य अन्य संवेदनशील गाँव हैं जहां से अभी भी बच्चियां गायब हो रही हैं," सेव चिल्ड्रेन के राज्य कार्यक्रम अधिकारी जतिन मोंदार बताते हैं।


हाई कोर्ट की $खल के बाद नयी साजिश का हुआ अंदेशा

कोलकाता हाई कोर्ट के दख़ल देने के बाद लड़कियों के गुम हो जाने की घटना का एक और पहलू सामने आया है। सबसे बड़ा खुलासा तो तब हुआ जब कोलकाता हाई कोर्ट में एक बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की गई। इस याचिका में हाई कोर्ट से अनुरोध किया गया था कि वह 2011 में बुड़वन के जिला सरकारी शरणार्थीगृह में नाबालिग सुशीला तमांग और हुगली के शरणार्थीगृह में गुडिय़ा नाम की लड़की की मृत्यु पर पश्चिम बंगाल की सरकार से जवाब मांगे कि उसने इन घटनाओं पर क्या एक्शन लिया। इस याचिका के बाद ही हाई कोर्ट ने घटनाओं की जांच केंद्रीय अन्वेषण ब्युरो (सीबीआई) को सौंप दी और इन शरणार्थीगृहों में रहने वाली अन्य बच्चियों का मेडिकल टेस्ट कराने तथा मृत बच्चियों के परिवारों को मुआवज़ा देने का भी आदेश दिया। चौंकाने वाली बात तो यह थी की ज़्यादातर बच्चियां मानव तस्करी का शिकार थीं जिन्हें पुलिस द्वारा बचाकर पुनरूद्धार गृहों में स्वास्थ्य सुधारने के लिए रखा गया था।


'वे कहां सुरक्षित हैं? तो अपने घर में ही परिवारजनों की देखरेख में बल्कि अब तो सरकारी शरणार्थीगृहों में भी वो सुरक्षित नहीं हैं। इतने बड़े देश में इन गुमशुदा लड़कियों को कहां खोजा सकता है?' दीपक प्रहलादका प्रश्न उठाते हैं। दीपक गुमशुदा लड़कियों की तलाश के अभियान का समर्थन करने वाले एक कानूनी कार्यकर्ता हैं।

पैसा कमाने की मजबूरी, शादी के वायदे या गरीबी, कारण कोई भी हो पर पलायन की वजह से ग्रामीण बंगाल की बेटियां खोती जा रही हैं एक ऐसे अंधेरे में जहां उन्हें कोई नहीं पहचानता। वो उस दिन के इंतज़ार में हैं जब वह अपने घर वापस पायेंगी।

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