मंजीत ठाकुर |
मधुपुरा (बिहार)। हम जब बहुत छोटे थे, हमारे शहर में एक मौलवी साहब हाजमा-चूरन बेचा करते। इंजेक्शन वाली छोटी कांच की शीशी में रबर का डॉट लगा होता, अंदर काले रंग का गीला सा पदार्थ। दोपहर की धूप में जब हम घर के कोनों में दुबके होते, या स्कूली दिनों में टिफि न का वक्त होता, तो उनकी जानी-पहचानी आवाज़ सुनाई देती।
बारह रकम जड़ी-बूटी, तेरह रकम स्वाद, जतो खाबेन ततो मजा पाबेन...बारह तरह की जड़ी-बूटियां तेरह तरह का स्वाद, जितना खाएंगे, उतना मज़ा पाएंगे। अठन्नी की शीशी खरीद ली जाती। कनिष्ठा उंगली से निकाल कर जब हाजमे का गीला पाउडर खाते, तो तमाम कि़स्म के स्वाद मुंह में भर आते।
कभी अज़वाइन, कभी काला नमक, कभी हल्की मिठास। अब गूंगे की तरह उस स्वाद को बताने में खुद को नाकाम पा रहा हूं।
जिंदगी भी कुछ हाजमे की चूरन सी हो गई है। जतो खाबेन ततो मजा पाबेन। जितना आगे बढ़ता हूं, उतना इसके स्वाद से परिचित होता जाता हूं। कभी करेले सा, कभी काले नमक सरीखा। कभी मिठास तो कभी गुदगुदा स्वाद जिसके लिए मन की जीभ की तमाम स्वादेन्द्रियां ही नहीं, देह की तमाम ज्ञानेन्द्रियां सक्रिय हो जाती हैं।
जिंदगी है, बताया ना जतो खाबेन ततो मजा पाबेन। किसी को आप खोजते रहते हैं, खोजते रहते हैं, वह नहीं मिलता। एक दिन अचानक आप पाते हैं कि जिसे आप तमाम दुनिया में खोज कर अधमरे से हो गए आपके उसी दोस्त ने फेसबुक पर आपको फ्रें ड रिक्वेस्ट भेजी है।
याद आता है दोस्तों का रूठना-मनाना, झगड़े, आंखे तरेरना, बिला वजह। बिना बात के झगड़े। काहे। मेरी मर्जी। अंग्रेजी में जिसे कहते हैं-कीप गेसिंग। आप अंदाजा लगाते रह जाते हैं।
जिंदगी का रवैया कुछ ऐसा ही है। जतो खाबेन ततो मजा पाबेन।
जिंदगी किसी लड़की की तरह व्यवहार करने लग जाती है। आपने गलती से आनंद बक्शी का गीत गा दिया, मौत महबूबा है वाला। फि र देखिए मजा। जिंदगी कहेगी जा बे मौत के हवाले ही जा। उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में खो जा।
आप विकल्पहीन, न आपके पास कोई जवाब, न कोई हल।
वक्त से लड़ते-लड़ते आप इतने दीन हो जाते हैं कि एक चिकने पत्थर की तरह कोई पानी की बूंद नहीं टिकती। जिंदगी सवाल पूछेगी, जैसा मैंने सोचा था, जैसा मैंने तुम्हे बनाना चाहा था, जैसी मेरी उम्मीद थी, तुम वैसे नहीं। जिंदगी से कोई लड़ सका है आज तक जतो खाबेन ततो मजा पाबेन।
पेट खाली है, जिंदगी का हाजमा क्या पचाने के लिए खाया जाए। किसी ने कहा था जिसे आप खोजना चाहते हैं, जीवन चाहे तो वो आपको खोज लेगा। भीड़ में से जिंदगी ने मुझे खोज निकाला। लेकिन बैंगन चालीस रुपये किलो, खाने का तेल एक सौ पचीस का, खाने लायक चावल तीस रुपये किलो के ऊपर। जीवन ने हमारे हिस्से टूटा बासमती ही छोड़ा। हमारे इलाके में इसको खुद्दी (टूटे चावल) खाना कहते हैं।
जिंदगी क्या-क्या रंग दिखाती है। विद्यापति का एक पद है, मैथिली में है। हमारे इलाकाई गायक हेमकांत बड़े कारुणिक ढंग से गाते हैं, च्भोलानाथ कखन हरब दुख मोरज् मतलब कि भोलेनाथ मेरा दुख कब हरोगे? बाद में नागार्जुन जी ने लिखा, च्बांसअक ओइधि उपारि करै छी जारैन, हमर दिन की नहिं फि रतई, हे जगतारैन।ज् यानि बांस की जड़ उखाड़कर उसे जलावन बनाकर इस्तेमाल कर रहा हूं, हे जगदंबे, मेरे दिन कब बहुरेंगे।
ईश्वर में भरोसा न करने वाले को कीर्तन याद आने लगे, तो समझिए कुछ तो गड़बड़ है। जिंदगी क्या-क्या मजा दिलाती है जतो खाबेन ततो मजा पाबेन।
मजाकों, ठहाकों, उल्लासों, आईपीएल, जीतों, टीवी की चमक-दमक, गायन स्पर्धाओं में सुर लगाते हुए बच्चों, केबीसी में करोड़ों जीतते लोगों, सिनेमा के रुपहले परदे पर अत्याचारी को नेस्ताबूद कर देने वाले नायकों और भी न जाने क्या-क्या। इनके बीच जीवन का एक पक्ष हाजमे के चूरन की तरह धूसर या शायद काला है। बचपन की कड़वी यादें हैं, जवानी में संघर्ष के दिन हैं, सपने हैं जो धीरे-धीरे मटमैले होते गए, वक्त की बारिश में जिनकी रंगत उतरती गई, संघर्ष के तूफान में जिनके कोने झड़ते गए।
कई बार सोचा कि कोई हो जो इन तूफानों में मेरे साथ, मेरी तरह सोचने के लिए हो। लेकिन जिंदगी ने साथ आने से पहले शर्ते लागू वाला सितारा चस्पां कर दिया। जीवन में शर्ते लागू हैं।
किसी ने कहा था जीवन में किताबों का बड़ा सहारा होता है, जीवन के इस सवाल का किसी किताब में उत्तर नहीं। देश में तमाम किस्म की घटनाएं घट रही हैं, सेना और सरकार में द्वंद्व है, भूख है, गरीबी है, बेरोजगारी है, मंदी है, पेड न्यूज़ें हैं, उड़ीसा से लेकर कश्मीर तक और गुजरात से तमिलनाडु तक अपने-अपने जतो खाबेन ततो मजा पाबेन, का मामला है।
इन दुखों के बीच मेरे दुख की क्या गिनती है।
(लेखक दूरदर्शन में वरिष्ठ पत्रकार हैं। इन्होंने वीएस नॉयपॉल और रामचंद्र गुहा की पुस्तकों का हिंदी अनुवाद भी किया है।)
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