Monday 11 February, 2013

चंदेरी की चमक से क्यों दूर रहें बुनकर!



 वैसे तो अक्सर मैं 'समाज में सबसे नीचे फ्रेज का इस्तेमाल दुनिया के उन तबकों के लिए करता रहा हूं, जो 2 डॉलर प्रतिदिन से भी कम पर गुज़ारा करते हैं, लेकिन मध्य प्रदेश का एक छोटा सा कस्बा जहां हर घर से हथकरघा चलने की आवाज सुनाई देती है। जहां एक ऐसी बेशकीमती चीज तैयार होती है जिसकी चमक-दमक से बॉलीवुड भी अछूता नहीं हैं।

लेकिन, इन्हीं आवाजों के बीच वही बुनकर हर पल दम तोड़ते नजर आते हैं। जहां हर घर बदहाली का शिकार है। जिसे देखकर 'समाज में सबसे नीचे जैसा फ्रेज भी मुझे नाकाफी मालूम पड़ता है। दरअसल, मैंने इन हालातों का जिक्र करना इसलिए ज़रूरी समझा ताकि मैं चर्चा कर सकूं कि कैसे हम गरीबी, भ्रष्टाचार, बदहाली को दूर कर  सकते हैं

अशोकनगर जिले का वो छोटा सा कस्बा जिसे लोग चंदेरी के नाम से जानते हैं, जिसकी पहचान देश ही नहीं, दुनियाभर में हाथ से तैयार साडिय़ों की वजह से होती है। साडिय़ों का जिक्र हो और चंदेरी का नाम आए, ये हो ही नहीं सकता। चंदेरी की साडिय़ां आम से लेकर खास लोगों की पहली पसंद बन चुकी हैं। साडिय़ां बुनना चंदेरी के लोगों के रोजगार का एक बड़ा ज़रिया है। सरकारी आंकड़ों की माने तो यहां की आबादी का 60 प्रतिशत हथकरघे के बुनकर रोजग़ार से जुड़े हैं।

यूं तो चंदेरी में साडिय़ों के जरिए सालाना करीब 70 करोड़ रुपये का कारोबार होता रहा है। लेकिन, फि भी बुनकर अपने खून-पसीने से विकसित अपनी इस कलाकारी से ख़ुद ही नाता तोडऩे के लिए मज़बूर हैं। सूत व्यापारियों एवं साड़ी निर्माताओं के लिए 16-16 घंटे हथकरघा चलाने वाले बुनकर बिचौलियों की हेराफेरी के शिकार हैं। जिसकी वज़ह से बड़ी मुश्किल से वो दो जून की रोटी जुटा पाते हैं। शोषण और तंगहाली ने बुनकरों को इतना बेरहम बना दिया है कि वे अपने छोटे-छोटे बच्चों को स्कूल भेजने या खेलने-कूदने देने के बजाय काम में लगा देते हैं, ताकि वे भी चार-छह रुपये कमा सकें।

हालांकि, मैं अक्सर सूचना और तकनीक का इस्तेमाल कर विकास की बात करता रहा हूं, और हमेशा से ही सूचना उस तक पहुंच की शक्ति को समझा है। यहां तक कि इंस्टीट्यूट ऑफ  रूरल मैनेजमेंट, आनंद और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ  मैनेजमेंट, कोलकाता की एक रिसर्च ने भी मेरे इस विश्वास को सही साबित किया है। इंस्टीट्यूट ऑफ  रूरल मैनेजमेंट और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ  मैनेजमेंट के शोध 'केस स्टडी ऑन डिजिटल एम्पावरमेंट ाउंडेशन, चंदेरियां प्रोजेक्ट' में लेखक का कहना है, ''समाज के नीचे के तबके में बाज़ार को बढ़ाया जा सकता है अगर जो वस्तुएं पैदा करते हैं जो उनकी खपत करते हैं के बीच का अंतर इन तरीकों से पट जाये। 1. उत्पादकों उपभोक्ताओं के बीच दूरियां मिट जाएं 2. उत्पाद खपत के बीच समय का अंतर समाप्त हो जाये 3. जो सूचना की खाई है, उत्पादकों उपभोक्ताओं के बीच उत्पाद मार्केट परिस्थितियों के कारण वो मिट जाये और चार पैसे की कमी यानी उपभोक्ताओं की खरीदने की क्षमता जब कि वो अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने की कोशिश कर रहे हों।''

करीब 3 साल पहले यानि 2009-10 में जब चंदेरी में चंदेरियां प्रोजेक्ट शुरू हुआ था, तो वहां के बुने हुए उत्पादों का कुल बाज़ार सिर्फ  70 करोड़ रुपये का था और हर बुनकर घर औसतन 3000 रुपये से भी कम प्रतिमाह की आय पर गुज़ारा कर रहा था। पूरे चंदेरी बुनकर, आपूर्ति करने वाले, बाजार, रिटेल उपभोक्ताओं के बीच सूचना के तालमेल की कमी से परेशान थे। आपूर्ति करने वाले मास्टर बुनकर बाज़ार  को अपने इशारों पर चलाते थे, और इसी वजह से उन्हें पूरे बाजार का ज्ञान, मांग आपूर्ति और खासकर के डिजाइन की मांग की जानकारी बहुत अच्छी थी।

लेकिन, नई रिसर्च रिपोर्ट के मुताबिक, सिर्फ  3 सालों में चंदेरी के बुनकरों की कुल आमदनी ही नहीं, कारोबार भी दोगुने से भी ज्य़ादा हो गया है। जहां बुनकर परिवारों की मासिक आय 6000 रुपये हो गई है, वहीं कारोबार भी बढ़कर 150 करोड़ तक पहुंच गया है। ये सब पिछले 3-4 साल की हमारी मेहनत का नतीजा है। जहां किसी वक्त शिक्षा सिर्फ  स्कूलों तक सीमित थी, वहीं आज हर बच्चा कंप्यूटर की अच्छी जानकारी के साथ अलग-अलग रोजगार में व्यस्त है। कभी चंदेरी के लोगों को कंप्यूटर और इंटरनेट की अहमियत का अंदाजा तक नहीं था, आज वहीं, हमारी कोशिश से 13 सरकारी स्कूल और हेल्थ सेंटर कंप्यूटर और इंटरनेट के जरिए पुरी दुनिया से जुड़ गए हैं। कभी बुनकर हाथ से डिजाइन शीट बनाया करते थे, लेकिन अब उनके डिजाइन कंप्यूटर पर तैयार किए जाते हैं। यही नहीं, डिजिटल एंपावरमेंट फाउंडेशन ने चंदेरिया प्रोजेक्ट के तहत बुनकरों को कंप्यूटर डिजाइन प्रशिक्षण के साथ-साथ ऑनलाइन बाज़ार भी मुहैया कराया है। इसके अलावा फाउंडेशन ने वायरलेस के जरिए चंदेरी को इंटरनेट से जोड़ रखा है। मेरी राय मानें तोदेश भर में टेक्सटाइल से जुड़े कारोबार करने वाले करीब 400   समूह, जिनका कुल कारोबार करीब 60,000  करोड से भी ज्यादा है, उन्हें कपड़ा मंत्रालय कंप्यूटर प्रशिक्षण दे। डिजिटलीकरण से राजस्व दोगुना हो सकता है और साथ ही सूचना के तालमेल की कमी को भी दूर किया जा सकता है।

लेखक डिजिटल एंपावरमेंट फाउंडेशन के संस्थापक निदेशक और मंथन अवार्ड के चेयरमैन हैं। वह इंटरनेट प्रसारण एवं संचालन के लिए संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के कार्य समूह के सदस्य हैं और काम्युनिटी रेडियो के लाइसेंस के लिए बनी सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की स्क्रीनिंग कमेटी के सदस्य हैं।  

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