Monday 18 February, 2013

महाकुम्भ में अव्यवस्था



एस बी मिश्रा
कुम्भ स्नान की परम्परा हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग है और आगे भी रहेगी इसके माध्यम से श्रद्धालुओं को देश और समाज को देखने, समझने का अवसर मिलता है पुराने समय में इतनी भीड़ नहीं होती थी क्योंकि  देश की आबादी बहुत कम थी और आने जाने के लिए रेल और बसें नही थीं लोग पैदल जाते थे और श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए रास्तों के किनारे शीतल छाया वाले वृक्ष लगाने, पानी के लिए रास्ते में कुएॅ बनवानेे, ठहरने के लिए धर्मशाला बनवाने आदि की परम्परा थीं अब समय बदल गया है, लोगों के पास आने-जाने के निजी साधन हैं, विशेष रेलें और बसें चलाई जाती हैं और श्रद्धालुओं का एक ही लक्ष्य रहता है जल्दी से जल्दी डुबकी लगाएं और अपने पापों की गठरी संगम में खोल दें  

कुम्भ के विषय में मान्यता है कि सागर मंथन के बाद निकले अमृत कुम्भ को राक्षसों से बचते-बचाते देवताओं ने कई स्थानों पर छुपाया था जिसमे प्रमुख हैं उज्जैन, प्रयाग और हरिद्वार उस अमृत कुम्भ का अन्तत: क्या हुआ था वह तो देवता ही जानें परन्तु उन स्थानों पर अमरत्व की तलाश में प्रत्येक 12 साल बाद बड़ा जन समूह इक_ होता है। इस साल मौनी अमावस्या के दिन जितने लोग प्रयागराज गए थे उनमें से दर्जनों मरे और सैकड़ों घायल हुए 1954 में तो बहुत ही बड़ी दुर्घटना हुई थी जब शाही स्नान के समय भगदड़ में बड़ी संख्या में श्रद्धालु हताहत हुए थे

ऐसी दुर्घटनाओं के लिए प्राय: व्यवस्था की कमियों को दोष दिया जाता है, शायद स्वाभाविक भी है लेकिन यह पूरा सच नहीं है व्यवस्था तो श्रद्धालुओं की अनुमानित संख्या के आधार पर की गई होगी और जब एक करोड़ की जगह तीन-चार करोड़ श्रद्धालु  जाएंगे तो व्यवस्था चरमराएगी कल्पना कीजिए यदि दुनिया भर के मुसलमानों को हज करने की खुली छूट हो जाय तो भीड़ का आलम क्या होगा सऊदी अरब जैसा छोटा देश हमसे बेहतर व्यवस्था कर पाता है क्योंकि वहां व्यवस्था पर आस्था हावी नहीं होने पाती।

संगम तट पर महाकुम्भ के समय इकट्ठी होने वाली भीड़ के लिए व्यवस्था सम्बन्धी अनेक पक्ष हैं। रहने के लिए तम्बू, पीने का पानी, भोजन और सबसे महत्वपूर्ण है संगम स्नान जिसके लिए जनसमूह वहां पहुंचा है। साथ ही शौचालय व्यवस्था भी कम महत्व की नहीं है प्रदूषण की भयावह स्थिति को एक सन्यासी, शायद स्वामी चिदानन्द जी सरस्वती 'मुनि जी', का वह बयान बताता है जिसमें कहा था कि मन्दिर बनाने से ज्यादा जरूरी है यहॉ शौचालय बनाए जाएं पता नहीं व्यवस्था देखने वालों ने उनकी बात सुनी या नहीं

महाकुम्भ की सारी व्यवस्था उत्तर प्रदेश सरकार के वरिष्ठ मंत्री मुहम्मद आजम खान की देख रेख में चल रही थी दुर्घटना के बाद, अपनी नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए उन्होंने त्यागपत्र की पेशकश की है मुख्यमंत्री महोदय ने दुर्घटना की जांच के आदेश भी दिए हैं। कहा यह भी जा रहा है कि चूक रेलवे की तरफ  से हुई थी जो भी हो, परस्पर दोषारोपण से आगे का रास्ता नहीं निकलेगा सच यह है कि हमारे मूलभूत सिद्धान्त चाहे जितने तर्कसंगत हों परन्तु हम मंदिरों में भगवान के दर्शन करने, घंटा बजाने या प्रसाद लेने की होड़ में हमेशा धक्का-मुक्की करते हैं तर्कसंगत सिद्धान्तों के साथ हमें इबादत में अनुशासन अपनाने की जरूरत है

राजनैतिक दलों को भीड़ में वोट दिखाई देते हैं, इसलिए भीड़ को घटाने अथवा नियंत्रित करने के उपाय वे नहीं सोचेंगे इसका उपाय सोचना होगा समाज और मार्गदर्शक मंडल को परन्तु वे तो इस बात की चिन्ता में व्यस्त हैं कि अगला प्रधानमंत्री कौन होगा समाज को कौन बताएगा कि भगवत् गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है 'वृक्षाणाम् अश्वत्थमहम' अर्थात वृक्षों में मैं पीपल हूं तो फि यदि प्रत्येक गॉव में एक पीपल का पेड़ लगाया जाय और नित्य उसके दर्शन किए जायें तो भी अमरत्व प्राप्त होगा बोधिवृक्ष और नीम का महत्व भी कम नहीं है

महाकुम्भ के अवसर पर संगम तट पर विराट के दर्शन होते हैं, मन में सात्विक विचारों का उद्गम होता है और नई ऊर्जा प्राप्त होती है घर लौट कर यदि हम इस नई ऊर्जा का उपयोग दरिद्र नारायण की सेवा में करें तो पापों की गठरी बनेगी ही नहीं और बार बार गठरी लेकर संगम नहाने की आवश्यकता नहीं होगी। यदि भीड़ नियंत्रण के लिए सरकार परमिट कोटा की व्यवस्था करेगी तो हमें बुरा लगेगा, बेहतर होगा हमारा समाज स्वयं ही त्याग और संयम का परिचय देते हुए जीवन में एक बार के संगम स्नान को पर्याप्त मान ले लेकिन यह कैसे होगा जब मार्गदर्शक स्वयं ही शक्ति प्रदर्शन के साथ कम्पटीशन में रहते हैं कि कौन सा अखाड़ा पहले स्नान करेगा

यदि हमें गंगा जी में आस्था है तो जो लाभ मकर संक्रान्ति, मौनी  अमावस्या और बसन्त पंचमी को स्नान करने से मिलता है वह 365 में से किसी भी दिन स्नान करने से मिलेगा, अवश्य मिलेगा यदि समाज में संयम ना रहा तो आज तीन करोड़ की व्यवस्था है तो आने वाले दिनों में तीस करोड़ की व्यवस्था करनी होगी। इससे आने वाले समय में एक अच्छी परम्परा बाधित हो सकती है।  

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