
मनरेगा जैसी गाँवों से जुड़ी योजनाओं में तकरीबन 11 हज़ार करोड़ रुपये बिना खर्च ही लौटाए गए। इंदिरा आवास योजना के लिए आवंटित धनराशि में से 5,859 करोड़ रुपये खर्च नहीं किए जा सके। मनरेगा के लागू होने के चार साल बाद यानि 2008-2009 में इस योजना के तहत, रोजगार तलाश रहे केवल 14 फ ीसदी लोगों को वादे के हिसाब से 100 दिन का रोजगार मिला। आने वाले बजट से गाँवों में रोजगार से जुड़ी उम्मीदों के बाबत रूरल रिलेशन के संस्थापक प्रदीप लोखंडे कहते हैं, "बजट में अगर कुछ ऐसा प्रावधान हो जिससे हर तालुका में 10 हज़ार नए रोजगार पैदा किए जा सकें। इससे कई समस्याएं दूर की जा सकेंगी। गाँवों में लोगों को यह समस्या है कि सरकार ने ग्रामीणों के के लिए पैसा तो खातों में डाल दिया लेकिन लोगों को ये मालूम ही नहीं है कि वो पैसा उन्हें कैसे मिल सकता है। कई खाते हैं जो बंद पड़े हैं। लोगों को आर्थिक रुप से भी साक्षर किए जाने की बड़ी जरूरत है, ताकि वो ये जान सकें कि योजनाओं का लाभ कैसे मिल पाएगा।"
जहां एक ओर गाँवों से जुड़े लोगों को इस बजट से खास उम्मीदें हैं, वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें इस बजट से कोई विशेष आशा नहीं है।

योगेश आगे कहते हैं, "सारा पैसा बंदरबांट में चला जा रहा है। कायदे से लोगों को खुद तय करना चाहिए कि 2014 में उन्हें गाँवों के लिए कैसा बजट चाहिए। हमें पारंपरिक बजट की जगह रचनात्मक बजट की जरूरत है।"
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 90 के दशक में खेती से जुड़ी योजनाओं में कुल बजट का तकरीबन 16 फीसदीआवंटित हुआ जो कि साल 2000 से 2010 के बीच घटकर 14.8 फीसदी रह गया। 2008-2009 में केन्द्र सरकार द्वारा सकल घरेलू उत्पाद का 3.3 फीसदी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में खर्च होता था जो 2011-2012 में घटकर 2.3 सदी हो गई।
ग्रामीण विकास मंत्रालय की एक रिपोर्ट में बजट को लेकर चिंता जताते हुए कहा गया है, "खेती के क्षेत्र में बजट की घटती प्राथमिकता और खेती से जुड़ी लागत में लगातार हुई बढ़ोत्तरी की वजह से खेती से होने वाली आय और ग्रामीण जनता की क्रय क्षमता में कमी आई है। वहीं, किसानों की आत्महत्या की दर और ग्रामीणों में पनपते असंतोष में बढ़ोत्तरी हुई है। उम्मीद की जा रही थी कि बजट खेती के क्षेत्र में हो रही इस कमी को पूरा करने की ओर ध्यान देगा लेकिन लगता है कि बजट की प्राथमिकताओं में ये क्षेत्र काफ ी नीचे है।"
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