Monday 18 February, 2013

गाँवों से भी आगे निकल चुकी हैं लड़कियां



गाँव की औरतों की एक बनी बनाई तस्वीर होती है। कई दशकों से ये तस्वीर सिनेमा से लेकर पोस्टरों में उतारी जाती रही है। आदर्श बहू वाली छवि मेम क़ैद या फि भोले भाली ख़ूबसूरत अल्हड़ लड़की जिस पर किसी ज़मींदार की निगाह है। इन तस्वीरों में गाँव की औरत ऐसे पेश की जाती रही है जैसे उसका काम पोते को दूध पीलाना और कमर में लटकी चाबी से तिजोरी खोलना। आज भी इसी प्रकार की तस्वीरें थोड़े बहुत बदलाव के साथ चली रही हैं। किसी का ध्यान जाना चाहिए कि गाँव की औरतें कैसे बदल रही हैं।

कई साल पहले मेरे पिताजी ने इसकी तरफ़  ध्यान दिलाया था। कहने लगे कि सब मज़दूर दिल्ली मुंबई से मनीआर्डर भेजते हैं और उस पैसे से औरतें आत्मनिर्भर होने लगी हैं। इस अर्थ में कि कितना और किस पर ख़र्च करना है। इसका फ़ै सला वे ही कर रही हैं। सुबह-सुबह तैयार होकर समूह में ब्लॉक जाती हैं, खऱीदारी करती हैं और सिनेमा भी देखती हैं। ये कमाल की जानकारी थी। गाँव की औरतें बिना मर्दों के दस किलोमीटर की दूरी तय करके सिनेमा देखने जा रही हैं। यह बदलाव अपने आप नहीं हुआ। गाँव के मर्द अवसरों की तलाश में दूसरे शहरों में गए तो अपने पीछे अपने ही पैसे से अलग-अलग अवसर पैदा करने लगे। पता चला कि इस कारण मेरे क़स्बों का बंद पड़ा सिनेमा हाल जि़ंदा हो गया। उसमें भोजपुरी फि़ ल्में दिखाई जाने लगीं। पांच से दस रुपये का टिकट और बोरे पर बैठ कर फिल्म का आनंद। पिताजी ने समझाया कि भोजपुरी सिनेमा की कामयाबी में इन्हीं औरतों और मनी ऑर्डर मनी का हाथ हैं।

मर्दों के इस पलायन ने गाँवों में औरतों के लिए नए-नए अवसर पैदा किये हैं। उनकी मांग मज़दूर के रूप में बढऩे लगीं। वे खेती के कामों में प्रत्यक्ष रूप से जुडऩे लगीं। आज हिन्दुस्तान की खेती का श्रम करीब-करीब स्त्री श्रम पर निर्भर हो गया है। पहले औरतें खेतों से खरपतवार निकालने और धान कूटने के श्रम में लगी हुईं थी मगर अब यह काफ बदल गया है। वे खेत की जुताई से लेकर बुनाई-कटाई तक का काम करने लगी हैं। उनके श्रम की कीमत कम होते हुए भी पहले के मुकाबले बढऩे लगी है। उनके पास दो-दो जगह से पैसा रहा है। इस पैसे ने उन्हें गाँव की हदों के भीतर पहले से ज़्यादा आज़ादी दी है। इसका मतलब यह नहीं कि गाँवों में औरतों के लिए कोई स्वर्ण युग गया है। इसका मतलब यह है कि गाँवों में औरतें भी उपभोक्ता और क्रयशक्ति वाली हो गई हैं।

मनरेगा और स्वयं सहायता समूह ने उनकी आर्थिक आज़ादी में काफी योगदान दिया है। इन जगहों से गाँवों में औरतों के बीच नेतृत्व खड़ा कर दिया है। उनके सरपंच बनने पर पति ही सरपंच कहलाते रहे लेकिन यहां भी अब महिला सरपंच धीरे-धीरे उभर कर सामने रही हैं। यह एक ऐसा राजनीतिक बदलाव है जिसकी बुनियाद पर इमारत बाद में खड़ी होते दिखेगी।

गाँवों में यह बदलाव होते तो बड़ी संख्या मे लड़कियां स्कूल और क़स्बों के कालेजों में शिक्षा ग्रहण करते नजऱ ही नहीं आतीं। बिहार में जब नीतीश कुमार ने लड़कियों को साइकिल बांटी तो उसकी ज़मीन तैयार थी। लड़कियों ने साइकिल को एक नए अवसर के रूप में लिया। हर तरफ  से झुंड की झुंड लड़कियां साइकिल से स्कूल जाते दिखने लगीं। इससे उनमें गतिशीलता आई और वे अपना काम बिना भाइयों की मदद के करने लगी हैं।
इस बदलाव को सिर्फ  ऊपरी तौर पर देखा गया मगर इसके असर का अध्ययन बाकी है। गाँवों में औरतों के बाहर निकलने पर सामाजिक संबंधों में किस तरह के नए-नए तनाव या बदलाव रहे हैं इसे देखे जाने की ज़रूरत है। यही शक्ति आने वाले समय में ग्रामीण राजनीति का चेहरा बदलेगी। जैसे ही इनके बीच नेतृत्व का अनुभव और आत्मविश्वास उभरेगा गाँवों में ज़माना एक बार फि बदलेगा।

वैसे भी गाँवों की तमाम जगहों पर लड़कियों की बढ़ती मौजूदगी कई तरह की असुरक्षा भी पैदा कर रही है। उन्हें तरह-तरह से घरों मे क़ैद करने या उनकी आज़ादी पर अंकुश लगाने के प्रयास हो रहे हैं। कभी जींस पहनने के बहाने तो कभी  मोबाइल   फ़ो रखने जैसे बेमतलब के पंचायती रमानों के ज़रिए। लेकिन अब देर हो चुकी है। गाँवों में लड़कियां आगे निकल चुकी हैं। बल्कि गाँवों से भी आगे निकल चुकी हैं।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

1 comment:

  1. Yehi Ladkiyan Is desh ka Uddhar karengi mujhe umeed hai :)

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