Tuesday 26 February, 2013

पहला स्कूल माँ की गोद होता है



एक अफ़्रीकी कहावत है  'इट टेक्स विलेज टू रेज़ चाइल्ड' यानी एक बच्चे को बड़़ा करने के लिए एक गांव की ज़रूरत होती है। सच भी है। बच्चों को अकेले पालना कहां मुमकिन होता है? उसकी परवरिश पर घर-परिवार, गांव-जवार, लोग-बाग और पूरे समाज का असर दिखाई देता है। उसकी बोली, उसका लहज़ा, उसकी भाषा, उसकी सोच, उसके खान-पान सब पर उसके आस-पास के माहौल का साफ़  असर दिखाई देता है। बावजूद इसके, जि़न्दगी के पहले और सारे अहम पाठ बच्चा अपनी मां की गोद से सीखकर निकलता है।

एक वाकया याद रहा है मुझे। मुझे दो कामों से सख्त नफ़ रत हैइस्त्री करने से और खाना बनाने से। लेकिन गृहस्थी चलाने की प्रक्रिया में इन दोनों कामों को नजऱअंदाज़ नहीं किया जा सकता। आप खुद कैसा भी कच्चा-पका खा लें, बच्चों के लिए खाना बनाने की ख़ातिर रसोई के मैदान--जंग में उतरना ही पड़ता है, चाहे आप कितने भी पैसे क्यों ना कमाते हों। ये एक ऐसा कड़वा सच है जिसे स्वीकार करने में मुझे कई साल लग गए थे। ख़ैर, किसी काम के सिलसिले में बाहर जाना था और हम शहर में रहनेवाले मध्यवर्गीय परिवारों को एक और ज़बर्दस्त बुरी आदत होती है घर के काम कराने के लिए कामवाली रखने की। एक कामवाली के बिना हमारी गृहस्थी चलाने का खय़ाल भी नामुमकिन है। कभी-कभी तो लगता है कि हमारे घर की खुशियां, हमारे घर की सुख-शांति इन्हीं कामवालियों पर निर्भर हैं। तो उस दिन हमारी कामवाली ने गच्चा मार दिया। उस दिन एक अहम मीटिंग में जाने से पहले मैंने झाडू-पोंछा, कपड़े-बर्तन सब किए और मेरा भुनभुनाना और झल्लाना बदस्तूर जारी रहा। उस दिन मेरे छह साल के जुड़वां बच्चों की भी छुट्टी थी और दोनों के लड़ाई-झगड़े सुलझाने की, उनको नहलाने-धुलाने की, खाना खिलाने की जो जि़म्मेदारी थी, सो अलग। दोपहर तीन बजे की मीटिंग से पहले तक मैं इस क़दर ही झल्ला चुकी थी कि दोनों पर बात-बात पर चीखना-चिल्लाना और डांट लगाना जायज़ लगने लगा था। उस दिन तो मुझे वो दोनों काम भी करने पड़े थे जिनसे मुझे सख्त नफ़ रत है खाना बनाना और कपड़े इस्त्री करना। ज़ाहिर है, मेरा गुस्सा सातवें आसमान पर था।

तैयार होकर बाहर निकली तो दोनों बच्चों को घर-घर खेलते देखा। बिटिया मम्मी बनी हुई थी और बेटा अपने मूल किरदार में था। बिटिया को जब बोलते, चीखते-चिल्लाते सुना तो ऐसा लगा कि मानो दिसंबर की कड़ाके की सर्दी में मुझपर एक घड़ा पानी पड़ गया हो। वो ठीक उसी तरह झल्ला रही थी और ठीक उसी भाषा का इस्तेमाल कर रही थी, जो मैंने पूरे दिन कहा था। अपनी ज़ुबान और अपने गुस्से पर नियंत्रण रखने का ये सबक मुझे मेरे बच्चे कई बार याद दिलाते रहते हैं। थोड़ा वो मुझसे सीखते हैं, थोड़ा मैं उनको देखकर सीखती हूं।

मेरे बच्चे तो ख़ैर अब थोड़े बड़े हो गए हैं। मां की सोच और मां की प्रतिक्रियाओं का असर नवजात बच्चों पर भी पड़ता है। मां के डर कब बच्चों के डर बन जाते हैं, मां का आत्मविश्वास कब बच्चों के जीवन पर असर डालने लगता है इसकी जानकारी एक मां को भी ठीक से नहीं होती। मैं अक्सर अपनी तुलना अपनी मां से किया करती हैं और अपनी शख्सियत में उनकी सोच की छाप साफ़  दिखाई देती है। क्या ग्राह्य हो और क्या त्याज्य, सही क्या और गलत क्या। इसका पहला पैमाना हमारे बचपन में मेरी मां का तय किया हुआ है।

इसलिए मैं और आप मां हैं तो हम पर जि़म्मेदारियां और बढ़ जाती हैं। समाज को एक अच्छा नागरिक देने का पहला दारोमदार स्त्री होने के नाते, एक मां होने के नाते आपके-मेरे कंधों पर आता है। हमारे बच्चे मीठी बोली बोलें, इसके लिए सबसे पहले हमें अपनी ज़ुबान बदलनी होगी। हमारे बच्चों में दूसरों के लिए प्यार, करुणा और दया हो, इसके लिए सबसे पहले उनके साथ प्यार से पेश आना होगा। हमारे बच्चे बड़े-बुज़ुर्गों की इज्ज़त करें, इसके लिए सबसे पहले बच्चों के हिस्से का सम्मान उन्हें लौटाना होगा। इसलिए कहा जाता है कि पहला स्कूल मां की गोद होती है और यहां से निकलकर जब बच्चा जि़न्दगी के सबक सीखने जाता है तो मां की गोद में सीखे हुए सबक पहले अक्षर, पहले शब्द, पहली लोरी, पहले गीत की तरह उम्र भर उसके साथ रहते हैं।  

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