Tuesday 26 February, 2013

अब मुश्किल से ही दिखते हैं ये वाद्य यंत्र


बचपन का वो लम्हा सबको याद होगा जब आलसी दोपहर में कुछ गलियों दूर से अचानक एक आवाज़ गूंजने लगती थी और हम उसे सुनते ही दौड़े चले जाते थे। इलाके बदलते तो आवाज़ें भी बदल जातीं। कहीं ये आवाजें 'तुनतुने' की होतीं तो कहीं बीन की। पर जो नहीं बदलता, वो था इन वाद्य यंत्रों को देखने-सुनने का उत्साह।

ऐसे ही भूल बिसरे कुछ वाद्य यंत्रों के बारे में बता रहे हैं भाष्कर त्रिपाठी


आंदेलू
यह आंध्र प्रदेश के लोक संगीत और साथ ही साथ  'बुराकथा' नाम की किस्सागोई में प्रयोग होने वाला दो छल्लों का बना एक वाद्ययंत्र है। बुराकथा में कलाकार दाएं हाथ से वीणा और बांये हाथ से आंदेलू बजाते हैं।
आंदेलू को कई तरीकों से बजाया जाता है। एक तरीका यह है कि एक छल्ले को अंगूठे में पहनकर और दूसरे छल्ले को बाकी की उंगलियों में फं साकर आपस में लड़ाया जाता है जिससे धुन निकलती है। इसके अलावा अदेलू के दोनों छल्लों को अंगूठे में फं साकर अन्य उंगलियों की सहायता से भी बजाया जाता है। आंदेलू की बनावट बहुत आसान होती है। ये डेढ़ से दो इंच व्यास के ब्रास के टुकड़े से बने दो छल्ले होते हैं। इसका घुमाव खोखला होता है जिसमें अंदर की ओर कुछ मेटल बॉल लगी होती हैं जिनसे झुनझुनाहट की आवाज़ आती है।

भारत के दक्षिणी हिस्से में लोकगायन में प्रयोग किए जाने वाले सबसे मशहूर वाद्य यंत्रों में से एक है इसे डफ़ ली के नाम से ज़्यादा लोग जानते हैं। आकार में दो फु तक बड़ी इस डफ  का एक लोहे के गोल सांचे पर चमड़ा चढ़ाकर बनाया जाता है। आमतौर पर यह हाथों से बजाया जाता है पर इसके साथ ही साथ कुछ लोग छड़ी का भी प्रयोग करते हैं।



द्रामयेन
यह एक लकड़ी का बना वाद्ययंत्र होता है जिसपर तार लगे होते हैं। इन तारों पर उंगलियां फेरकर इसे बजाया जाता है।भारत के कई हिस्सों में इसे तुंगना के नाम से भी जाना जाता है जिसकी सबसे बड़ी वजह है इससे निकलने वाली आवाज। टुंग-टुंग की आवाज करने वाला द्रामयेन वर्तमान में ज़्यादातर हिमालय के आसपास के इलाकों में बसे आदिवासियों और गाँवों में देखने सुनने को मिलता है। मुगलकाल के हस्तशिल्पों से पता चलता है कि उस समय द्रामयेन उत्तर भारत में बहुत प्रचलित हुआ करता था। इस यंत्र में चार से लेकर सात तार तक भी होते हैं।

दिग्गी
उत्तर प्रदेश के लोक संगीत में प्रचलित दिग्गी एक प्रकार का ड्रम ही है जिसे यहां के घडिय़ा लोग सबसे ज़्यादा प्रयोग करते हैं।





दोतार
यह लकड़ी की आसान बनावट का एक वाद्ययंत्र होता है जिसका लोक संगीत में बहुत प्रयोग होता है। यह एक ऐसा यंत्र है जो किसी किसी रूप में भारत के हर हिस्से के लोकसंगीत में पुराने समय से ही शामिल रहा है।








बनाम
जिस तरह अंग्रेजी संगीत में वायलिन का प्रयोग होता है उसी तरह भारत के कुछ हिस्सों में लोक संगीत में बनाम का प्रयोग किया जाता है। झारखंड, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, बिहार आदि जगहों पर निवास करने वाले सांथल कहलाने वाले आदिवासियों के मुख्य वाद्य यंत्रों में बनाम भी शामिल है। सांथल लोग बनाम पर कई तरह की नक्काशियां करते हैं जिसमें बहुत समय लगता है। इन नक्काशियों में ज़्यादातर इंसान और उसके दैनिक कामकाज के चित्र होते हैं। आमतौर पर एक तार और दो तार वाले बनाम ही प्रयोग होते हैं। कहीं-कहीं पर चार तार के बनाम भी मिल जाएंगे। इनकी धुन ठीक अंग्रेजी वायलिन की तरह होती है और इन्हें एक डंडी की सहायता से बजाया जाता है।

घाटम
घाटम मिट्टी का बना एक बर्तन होता है। इसका सबसे ज़्यादा प्रयोग दक्षिण भारत के सांस्कृतिक संगीत में होता है। इसे हाथ की थाप मारकर बजाया जाता है।








करतल
यह लकड़ी के टुकड़ों का जोड़ा होता है जिसके सिरे पर धातु की गोल प्लेटें फि कर दी जाती हैं। एक हाथ में दोनों टुकड़ों को पकड़कर उन्हें आपस में लड़ाया जाता है, जिससे ताल निकलती है। राजस्थानी लोक संगीत में भी करतल का बहुत महत्वपूर्ण स्थान होता है। भजन-कीर्तन में भी कभी--कभी कोई--कोई आपको करतल बजाता मिल जायेगा।

मंजीरा
इसे भारत के अलग-अलग हिस्सों में कई नामों से जाना जाता है जैसे झांझ, तला, मोंदिरा, कफ ी। यह फैले हुए शंकु के आकार के ब्रास के बने दो छल्ले होते हैं जो आपस में एक धागे की सहायता से बंधे होते हैं। इन्हें दोनों हाथों में पकड़कर आपस में लड़ाकर बजाया जाता है। कुछ कलाकर इन्हें एक हाथ की ही उंगलियों में फं साकर बजाते हैं। मंजीरा को आसानी से कहीं भी भजन-कीर्तन में बजते देखा-सुना जा सकता है।


पुंगी या बीन

यह आमतौर पर बांस की दो पतली छड़ों का बना होता है जिसमें से एक का काम होता है धुन पैदा करना वहींदूसरी नली ताल निकालने में काम आती है। बांस की दोनों ही नलियां एक बड़े खोखले टुकड़े से जुड़ी होती हैं जो कई बार नारियल के खोल से भी बनता है। फूं मारकर बजाने पर बांस की नलियों में कंपन होता है जिससे एक पतली आवाज़ निकलती है।

शंख
शंख घोंघे के कवच से बना एक यंत्र होता है। फूं मारकर बजाये जाने वाले इस यंत्र का हिंदू धर्म से बहुत गहरा जुड़ाव है। हिंदुओं में किसी भी शुभ काम की समाप्ति या शुरुआत पर शंख बजाया जाता है। मान्यता है कि इसकी ध्वनि बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक होती है।




ताशा
ताशा भारतीय ढोल का ही एक प्रकार है। इसे बनाने में एक बहुत पतले धातु के कवच का इस्तेमाल होता है। ग्रामीण इलाकों में धातु के ऊपर चमड़े को फीतों की सहायता से कसा जाता है जबकि शहरों में अब इस काम के लिए पेंच का प्रयोग आम है। इसे बजाने के लिए एक या दो छडिय़ों का प्रयोग होता है।




तुनतुना
इसका प्रयोग वर्तमान में पश्चिम भारत में बसने वाले भील, कुकना और वर्ली समुदाय के लोग करते हैं। यह लंबाई में एक से दो फु का होता है जिसमें मोटे डंडे पर एक तार दो सिरों के बीच कसा होता है। एक सिरे पर तार को कसने और उसमें तनाव पैदा करने के लिए गुठली होती है और दूसरे सिरे पर एक खोखला सिलेंडर के आकार का बर्तन जिससे ध्वनि निकलती है।

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