Tuesday 12 February, 2013

'मैं क्यूं नहीं?' नए भारत का नया मंत्र



वो मुझे महीनों तक चाय देता रहा बिना एक शब्द कहे। कागजों से भरी मेरी बेतरतीब मेज को साफ  करता रहा, हमेशा मुस्कराता हुआ।    अक्सर देर तक दफ्तर में रुकता, दूर किसी कोने में कहीं बैठता। जाने क्या किया करता था अकेला, मैं अक्सर सोचता।

भगवान जाने वो लड़का, सतीश कुमार, वो छब्बीस साल का, हंसमुख, हल्के नीले रंग की कमीज़ पहनने वाला लड़का, रात को आठ बजे दफ्तर के एक कोने में चुपचाप क्या करता होगा? कोई गुप्त प्रेमिका होगी ज़रूर। या फि दफ्तर की गप्प कानाफूसी का कारखाना चलता होगा?

''मैं वेब डिज़ाइन सीख रहा हूं, सर,'' वो एक दिन झिझकते हुए बोला। ''क्या आप मुझे अपना वेबसाइट बनाने देंगे?''

मेरे सामने खड़ा था वो, प्लास्टिक के कप में गर्म कॉफी लिए, कल्पना की, उम्मीदों की, सपनों की छलांग के लिए तैयार। वो तैयार था कि खुद को अपने ही हाथों से थाम कर, अपने चाय देने वाले बेख्वाब जीवन से मुक्त कर दे और एक व्हाईट कालर, सपनों भरे जीवन के हवाले कर दे।

वक्त बीता, और सतीश दफ्तर में भले ही कागज़ों पर प्यून ही रहा, लेकिन एक दिन कम्प्यूटर इस्तेमाल करना सीख गया, मेरे लिए सूचना के अधिकार की अर्जियां बनाना सीख गया, विशालकाय लाल पत्थरों के दफ्तरों में बाबुओं से कानूनी दांव-पेंच पर बहस करना सीख गया। एक दिन मुझे आश्चर्यचकित कर दिया उसने, जब वो गूगल चैट पर मुझसे काम की रिपोर्ट देने लग गया।

ये है नए भारत का चेहरा, सपने देखते हुए नए भारत का चेहरा। ये सपने देखना चाहता है और जानता है कि नए भारत में नए सपने देखने की इजाज़त है, और वो सपने सच भी हो सकते हैं।

मुझे सपने देखने वाले ये लोग हर छोटे शहर, हर गाँव में मिलते हैं। आपको भी हर दूसरे दिन मिलते होंगे। वो बदलते भारत की कहानी हैं। वो खुद भारत हैं।

हिंदुस्तान की तीन चौथाई जनसंख्या पैंतीस वर्ष के नीचे है, लेकिन लगता है सपने देखने के मामले में उम्र सिर्फ  एक बेमतलब संख्या है। रमा डे की उम्र इकसठ साल है, और उन्होंने नोएडा में अपने लिए अपने छोटे-छोटे ख्वाबों एक महाद्वीप बना लिया है। पश्चिम बंगाल के एक गाँव में जन्मी रमा डे को उनके पति ने छोड़ दिया था। वो कोलकता से दिल्ली पहुचीं, अपने साथ एक सूती साड़ी, एक मैली चादर, एक छोटी सी तकिया और तीन सौ रुपये लेकर। उन्होंने एक बच्चे की आया के तौर पे बेतहाशा मेहनत की। अंतत: अपने बैंक में डेढ़ लाख रुपये जोड़ लिए और पड़ोस के एक स्कूल में दाखिला ले लिया, हिंदी और अंग्रेजी सीखने के लिए। अब वो औरों की मदद करती हैं, पश्चिम बंगाल के सुदूर गाँवों के युवाओं के लिए साइकिलें              लेकर, ताकि वो स्कूल और काम पे जा सकें।

अब रमा डे सरकार की वृद्धावस्था पेंशन योजना में नाम लिखवाना चाहती हैं, एक मोबाइल फ़ो खरीदना चाहती हैं और टीवी भी।

और पश्चिम बंगाल के गाँवों से बहुत दूर मुंबई में इकतीस साल के एक युवक करण दलाल ने फैसला किया कि वो उस मोबाइल फ़ो और टीवी की दुनिया को छोड़ के साल भर असली भारत में रहेंगे। करण मुंबई के अपने आरामदेह घर को छोड़ कर उत्तर प्रदेश के कुनौरा गाँव में पहुँच गए। वहां उन्होंने एक साल बिताया और बच्चों को कम्प्यूटर सिखाया, इस प्रयास में कि गाँव से कंप्यूटर के जानकार निकल सकें।

उत्तर प्रदेश के ही एक और गाँव बाबागंज में 27 वर्षीय दिनेश कुमार ब्राह्मण पंडितों की उस मानसिक गुलामी के साथ बड़े हुए जिसके तहत पंडित ही भगवान के साथ जुडऩे का एकमात्र ज़रिया था, चाहे लोग पैदा हों, या शादी करें, या मुंडन, या मृत्यु को प्राप्त हों।

फिर अचानक एक शांतिपूर्ण बग़ावत हुई। एक मोटी सी किताब को हाथ में लिए उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों में दलितों ने ब्राह्मण पंडितों के वर्चस्व को ख़त्म कर दिया है। अब वो उसी किताब से पढ़ कर शादियां करवाते हैं, अंत्येष्टि भी, मुंडन भी और नामकरण भी।

''हमें पंडित की ज़रुरत नहीं है। हम सब कुछ खुद कर सकते हैं। अगर वो धार्मिक पुस्तक से पढ़ सकता है तो हम क्यूं नहीं?'' दिनेश कुमार ने मुझसे पूछा था।

''मैं क्यूं नहीं?'' यही है नए भारत का नया मंत्र।

उत्तर प्रदेश से सैकड़ों किलोमीटर दूर दक्षिण-पश्चिमी गुजरात के सिक्का गाँव में तीस साल के प्रफु गामी ने मुझे झटका दिया जब मैं ग्रामीण लोगों से बात करने के बाद वापस चलने लगा। गामी, जो ग्राम पंचायत के सदस्य हैं, अब मुंबई में एक कम्प्यूटर रिपेयर की दुकान के मालिक हैं, चूंकि गुजरात के गाँवों की बढ़ती आमदनी उनके परिवार का जीवन भी बेहतर बना रही है।

नए भारत में सपनों की बारिश हो रही है।

इतिहास का हिस्सा रहे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में सैयद मुहम्मद ज़ीशान दोस्तों के साथ खड़े हुए कहा,''मैं पढ़ाई के साथ किसी राजनैतिक पार्टी से जुडऩा चाहता हूँ। हम युवा लोग अपनी अलग पहचान चाहते हैं।''

महाराष्ट्र में कोऑपरेटिव आंदोलन के एक गढ़, लोनी में मुझे युवा लोग मिले जो वेल्डिंग मशीन चलाना, व्यापार करना और फैशन डिज़ाइनर सीख रहे थे। अहमदाबाद से बड़ोदरा की सड़क पर गाँवों के युवा मिले जो अग्निशमन की ट्रेनिंग ले रहे थे, ताकि वो बड़ी-बड़ी इमारतों में और मध्य पूर्व में जाकर रोजग़ार ढूंढ़ सकें।

इन सब गाँवों से बहुत दूर, मेरे कंप्यूटर पर, मेरे असिस्टेंट सतीश कुमार का सन्देश अचानक उसके ईमेल आईडी  से प्रकट हो जाता था। ''सर जऱा आरटीआई की एप्लीकेशन देख लीजियेगा।''

ढूंढिए उसे। दोस्त बना लीजिये उसे। चश्मा पहनने वाला वो शर्मीला पियोन जो मेरे लिए सूचना के अधिकार की अर्जियां बनाना सीख गया, विशालकाय लाल पत्थरों के दफ्तरों में बाबुओं से कानूनी दांव पेंच पर बहस करना सीख गया।

सतीश से, और नए भारत के उन कई सारे चेहरों से, सपने देखना सीखिएगा। 

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

3 comments:

  1. http://information2media.blogspot.in/2013/02/blog-post_6.html

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  2. http://information2media.blogspot.in/2013/02/13.html

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  3. accha laga yeh tukdaa, Aisi kitni kahaaniyaan hain asha bhari aur kaamyaab!

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