Tuesday 12 February, 2013

समाजिक संवेदनाओं से भरी फिल्में अब बनती हैं कम


मैंने 'माई' फिल्म देखी। हॉल में सिर्फ  हम चार लोग थे, मेरी मां, मेरी बेटी, हमारा घर संभालने  वाली जूली और मैं खुद। हॉल वालों ने कोशिश की कि अगर हम 'माई' के बजाय 'विश्वरूपम' देख लें तो उन्हें सिर्फ  4 लोगों के लिए फिल्म नहीं चलानी पड़ेगी, लेकिन मैंने इस बात से साफ  इंकार कर दिया ये कह कर कि अगर हमें विश्वरूपम देखनी होती तो उसी के टिकट खरीदे होते 'माई' के नहीं। बड़े अनमने ढंग से थियेटर वालों ने  हम चार लोगों के लिए फिल्म शुरू कर दी।

मुझे ये तो अंदाज़ा था कि फि ल्म की कहानी बुज़ुर्गों की तकलीफों पर आधारित है लेकिन इसमें  'अल्ज़ाइमर' की बात, बुज़ुर्गों को समझने की बात, उन पर ना झुंझलाने की बात इतनी             खूबसूरत ढंग से कही जाएगी, ये नहीं सोचा था। और जो सबसे अच्छी बात मुझे फिल्म में लगी, वो ये, कि फिल्म ने ये संदेश देने की कोशिश की कि अब बेटियां सक्षम हैं, अपने पैरों पर खड़ी हैं, इस काबिल बन गई हैं कि अपने बूढ़े माता-पिता का सहारा बन सकें। लद गए वो दिन जब सिर्फ  बेटे को ही इस लायक समझा  जाता था कि वो बुढ़ापे की लाठी बनेगा। फि ल्म में एक डायलॉग है जिसमें जीजा अपने साले को सलाह देता है कि बेटे के साथ-साथ  उसके एक बेटी भी होनी चाहिए क्योंकि बुढ़ापे में तो वही सहारा देगी। साथ ही इस बात की तरफ भी इशारा किया इस फिल्म ने कि हर बहू से तो ये उम्मीद की जाती है कि वो अपने सास-ससुर को  अपने माता-पिता की तरह             समझे लेकिन क्या एक दामाद अपने सास-ससुर को अपने माता-पिता की तरह समझ पाता है? खुशी हुई एक बेटी को ऑफिस जाते, मां की सेवा करते, घर संभालते देख कर वर्ना जिस तरह के टीवी  सीरियल आजकल बन रहे हैं उनमें तो बहू- बेटियां सिर्फ  एक सजी-धजी, हर वक्त साजि़शें रचती खूबसूरत गुडिय़ा से ज़्यादा कुछ दिखती ही नहीं।

हमने 2008 में जि़ंदगी लाइव  का एक एपिसोड बनाया जिसे मैं लगभग भूल चुकी थी। 'माई' ने मुझे अपने उस एपिसोड की याद दिला दी। हमने उन लोगों को शो पर बुलाया था जिनके किसी अपने को 'अल्ज़ाइमर' की बीमारी हो गई थी। जो लोग इस बारे में नहीं जानते उन्हें सरल शब्दों में समझा दूं कि 'अल्ज़ाइमर' बुढ़ापे की बीमारी है जिसमें इंसान धीरे-धीरे चीज़ें और बातें भूलने लगता है।  जैसे-जैसे बीमारी गंभीर होती  जाती है, लोग अपने घरवालों को भी भूलने लगते हैं, अपने घर का रास्ता भूल जाते हैं यहां तक कि ये भी भूलने लगते हैं कि खाना खाया या नहीं। ऐसे मरीज़ों को संभालना आसान नहीं होता, संभालने वाले को भी झुंझलाहट होती है, थकान होती है लेकिन इस बीमारी का कोई इलाज नहीं होता। दवाओं से बस इसके बढऩे की तेज़ी को धीमा किया जा सकता है और मरीज़ को घरवालों के प्यार और देखभाल की ज़रूरत होती है। उसी के सहारे वो अपनी बची हुई जि़ंदगी ठीक  से बिता सकते हैं। अब ये घरवालों को तय करना होता है वो अपनों की देखभाल खुद करेंगे या किसी वृद्धाश्रम के भरोसे छोड़ देंगे।

हमारे शो पर 3 महिलाएं आई थीं। द्रौपदी जी के पति को, विभा की मां को और दीपिका के पिता को 'अल्ज़ाइमर' था। वाकई, इन लोगों की बातें सुन कर कोई भी घबरा जाए। द्रौपदी जी के पति  एक बार लापता हो गए थे, कई घंटों बाद लौटे, विभा की मां कई बार उन्हें और उनके पति को पहचान ही नहीं पातीं थीं, दीपिका के पिता हमेशा शक करते थे कि उनके खाने में ज़हर मिलाया गया है। लेकिन इन तीनों महिलाओं में गज़ब की हिम्मत, प्यार का अहसास और सेवा का भाव था। उन्होंने  बिना किसी गिले-शिकवे अपनी जि़ंदगी को इस तरह से ढाल लिया था ताकि वो 'अल्ज़ाइमर' से जूझ रहे अपनों की देखभाल कर सकें और उन्हें एक सम्मानजनक जि़ंदगी दे                सकें, वृद्धाश्रम का अकेलापन नहीं।

चूंकि मैं उन महिलाओं से मिली थी, उनकी हिम्मत देखी थी, और सब्र के साथ सेवा करने का भाव महसूस किया था, मुझे बहुत खुशी हुई 'माई' देख कर। ऐसी फिल्में हमारे समाज के लिए, हम सब के लिए, हमारी अगली पीढ़ी के लिए बहुत ज़रूरी हैं। दुख इस बात का है कि ऐसी फिल्में बनती बहुत कम हैं और जो बनती हैं उन्हें हम जैसे कुछ लोग खाली हॉल में देखते हैं।

(लेखिका आईबीएन-7 न्यूज़ चैनल की वरिष्ठï  पत्रकार हैं।)


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