Monday 11 February, 2013

गाँव कैसे दिखेगा पिक्चरों में? फिल्म बनाने वाले तो शहरों में बैठे हैं


  
 'चक दे इंडिया', 'खोसला का घोसला', 'कंपनी', 'बंटी और बबली', 'रॉकेट सिंह : सेल्समैन ऑफ दी इयर' जैसी मशहूर और ज़मीनी सच्चाइयों से जुड़ी फिल्मों का पटकथा और बहुत से मशहूर गीत लिखने वाले जयदीप साहनी मानते हैं कि आजकल की फिल्मों में असली गाँव नहीं दिखता। फिल्मों और टीवी में भाषा की तोड़-मरोड़ के पीछे की मजबूरी और दिन--दिन कहानियों के खोखले होने के कारणों के बारे में सम्राट चक्रवर्ती स्नेहवीर गुसाईं ने बात की स्क्रीनप्ले लेखक और गीतका जयदीप साहनी से :             

प्रचलित मीडिया में आज भी पुराने ज़माने के गाँवों को दिखाया जाता है, असल चित्रण नहीं होता गाँवों का, ऐसा क्यों?
दो कारण हैं इसके
1-ज्यादातर बिजनेस मल्टीप्लेक्स से आने लग गया है। एक कारण यह है कि ज्यादा से ज्यादा प्रोड्यूसर्स ख़ास तौर से उद्योगपतियों को लगता है छोटे शहर या गाँव के लिए पिक्चर बनाने में कमाई नहीं होगी क्योंकि मल्टीप्लेक्स में महंगी टिक टें होती हैं पॉपकार्न, कोल्ड्रिंक तो कमाई यहां से ज्यादा होती है। ज्यादा से ज्यादा फिल्मी कहानियां जो कि शहरी या मल्टीप्लेक्स संस्कृति से संबंधित हैं वो ज्यादा मंजूर की जाती हैं। ज्यादा पैसा उन्हीं के लिए होता है। और जो गाँव से जुड़ी कहानी है, जो वास्तविक है उनमे उद्योगपतियों को कोई इंटरेस्ट नहीं होता।

2-जो लोग फिल्में बना रहे हैं ज़्यादातर बम्बई के महंगे बड़े इलाकों में रहते हैं, वो शहरी लोग हैं। उनको दूर-दूर तक हवा नहीं है किगाँव क्या होता है। उनसे पूछोगे की गाँव कैसा होता है तो उन्होंने फिल्मों में जो गाँव देखा होगा उनके लिए गाँव वही है। वो कभी गए ही नही गाँव।

आजकल टीवी सीरियल्स और फिल्मों में ऐसी भाषा का प्रयोग होता है जो कहीं की नहीं है, कई अलग-अलग बोलियों का मिश्रण होती है जिसे क्षेत्रीय भाषा कहकर बेचा जाता है। यह क्यों होता है?
टीवी में बहुत अच्छे-अच्छे लेखक हैं जो छोटे कस्बों से हैं, गाँव से है, आज तो टीवी में अलग-अलग क्षेत्रीय भाषाऐं रहीं हैं। लेकिन प्रॉब्लम ये होती है कि उनको इस तरह का सीरियल बनाना है जो हर राज्य में चले। जैसे अगर समझलो मैंने मारवाड़ी में बनाया। लेखक को पता है मारवाड़ी संस्कृति और भाषा के बारे में वो अच्छी तरह लिख सकता है। लेकिन व्यवसायिक कारण यह है टीवी चैनल वालों का ये तो पंजाब में भी चलना चाहिए, गुजरात में भी चलना चाहिए और हो सके तो साउथ में भी चलना चाहिए। तो इससे क्या होता है कि भाषा हल्की होती जाती है और बस उसकी हल्की महक ही रह जाती है। लेकिन उसकी महक बरकरार रखना बिना उस भाषा को भ्रष्ट किये, ये एक कला होती है जो अभ्यास से आती है। हम फिल्मों में भी कई क्षेत्रीय भाषों का इस्तेमाल करते हैं जैसे, हमने 'चक दे' में किया था।
बेचारे टीवी लेखक को टाइम इतना कम होता है कि वो सोच ही नहीं पाते क्या कर रहे हैं। वो तो बस एक फैक्ट्री के न्वेयर बेल्ट की तरह चलते रहते हैं। अच्छा लिखना टाइम का गेम होता है। और टाइम का गेम मतलब अप कम काम करें और जो भी काम करें उससे कम से कम आपका घर चल सके जो की लेखक के साथ नहीं हो पाता।

फिल्मों का जीवन अब इतना कम क्यों होता जा रहा है?
मार्केटिंग करना ही आजकल असली फिल्म है और वास्तविक फिल्म जो है वो एक बाईप्रोडक्ट (दूसरी ज़रूरी चीज़़) हो गई हैं। भाई, एक साल तक इतना शोर मचाया कि फलाना फिल्म रही है, तो उस डेट को कुछ तो रिलीज़ करना पड़ेगा। अब स्टार पर और मार्केटिंग पर सारा पैसा लगा देते हैं, राइटिंग में पैसा खर्च नहीं करते। तो कहानी कमज़ोर होती है। इनको पता होता है कि मामला तो अन्दर से खोखला है और फिल्म मंडे तक बैठ जाने वाली है तो पहले से शोर मचाने लगते हैं। इसी को इवेंट मार्केटिंग कहते हैं। असली फिल्म पर तो विश्वास ही नहीं रहता।

किसी फिल्म को लिखते समय शोध करना कैसे ज़रूरी होता है? शोध करते समय किन बातों को ध्यान में रखना चाहिए?
जिस तरह की फिल्में मैंने की हैं, अब तक ज़्यादातर असल जिंदगी से जुड़ी हैं। अगर भौगोलिक स्थिति या किसी चीज़ के बारे में पता नहीं रहता तो वहां जाना पड़ता था। जैसे 'चक दे' के टाइम पर महीनों लग गए थे वो फील लाने के लिए। प्लेयर्स के साथ समय बिताया, प्रेक्टिस करते समय उनसे मिलने गया। 'रॉकेट सिंह' के वक्त, जहाँ सेल्समैन स्कूटर मोटरसाइकिल रोक कर डोसा-बर्गर खाते हैं वहां गया, उनसे बातें। जाना पड़ता है, फिर सीखने को ज़रूर कुछ कुछ मिलता है।

आपके हर चरित्र की एक अलग कहानी होती है, कई लेयर्स होती हैं उनके जीवन में, ये कैसे पाता है?
कोई भी चरित्र जो आपकी फिल्म में मौजूद है उसके साथ न्याय करो। मुझे अपनी फिल्म के हर एक चरित्र से प्यार है। वो आपके परिवार के सदस्यों की तरह हैं। मैं किसी भी चरित्र को मरने के लिए नहीं छोड़ता। मुझे पता है जितनी भी  लेयर्स दूं बाद में फिल्म बनते समय बहुत कुछ कट जाना है। क्योंकि टीडीएस तो कटना ही है और कटता भी है।    
  मुख्य धारा से जुड़ी फिल्में जो हमलोग बनाते हैं वो बहुत रूखा माध्यम है। मोटी निब वाला पेन है। किताब तो है नहीं कि बुक मार्क लगा लिया की कल पढ़ लूँगा। ये चलायमान माध्यम है। दूसरा कारण यह है कि अपने चरित्रों को जब आप लेयर्स देते हैं तो फिल्म में माहौल उभरता है।

आजकल बहुत स्कूल और क्लासेस चलती हैं स्क्रीनप्ले, फिल्म लिखना सिखाते हैं। क्या यह अपना वादा पूरा कर रहे हैं?
मेरे केस में तो 'कम ज्ञान' से मुझे फायदा हो गया। मुझ पर बैगेज नहीं था कि हीरो ऐसा होता है, ऐसे बोलता है। मैंने हमेशा एक एनसेंबल कास्ट का प्रयोग किया है जिसमें सबका अपना-अपना महत्वपूर्ण रोल होता है। मुझे लगता है कि स्कूल या इंस्टिट्यूट किसी ना लिखने वाले को लिखना नहीं सिखा सकते। लेखन का स्कूल तरीके सिखा सकता है, तराश सकता है। पर विचार तो नहीं दे सकता ? अगर कोई तासीर से लेखक हो तो फिर कोई स्कूल, कोई कोर्स उसे लेखक नहीं बना सकता। एक मुसीबत और है कि स्क्रीन राइटिंग की जो भी किताबें हैं वो सारी अंग्रेजी में हैं।

गंभीर लेखन कब शुरू किया आपने?
असली लिखना विज्ञापनों के बाद ही शुरू हुआ। मैंने गाने लिखने शुरू किये। दिल्ली में मैंने यूफोरिया बैंड, शांतनु मोइत्रा आदि के साथ गाने लिखे। छत पर बैठकर गाने बना लिए, जैसे 'माएरी' फिर एक दिन 'गांधी' फिल्म का स्क्रीनप्ले हाथ लग गया। मेरी तो आंखें ही फट गयीं। उससे पहले कुछ पता ही नहीं था। ये वर्ड ही नहीं सुना था, स्क्रीनप्ले। मैं तो इंजीनियर आदमी था।

मुझे लगता है हमारी लिखाई मतलब फिल्म लेखन सुधारने का बहुत स्कोप है। सिर्फ मेरी बल्कि हम सबकी। अभी मैं डायरेक्शन के बारे में बिलकुल नहीं सोच रहा। अभी तो ये समझ आने लगा है की स्क्रीन राइटिंग की कला है क्या। अच्छे-बुरे में फर्क समझ में आने लगा है। थोड़ा हाथ चलने लगे हैं। और जब कोई ट्रेनिंग ही नहीं है तो सेल्फ  असेसमेंट ही सब कुछ है।

लोगों को बहुत देर से समझ आता है कि करना क्या है? क्या कहते हैं आप इस बारे में?
ये इस यंग जनरेशन के लिए सबसे बड़ी प्रॉब्लम है। अंग्रेज़ हमें एक एजुकेशन सिस्टम देकर गए। उन्हें हमें क्लर्क बनाना था तो वो वैसी एजुकेशन थी। पंद्रह-सोलह  के लड़के को लड़की और खाने के अलावा कुछ और सूझता है क्या? और इसी उम्र में आपको अपनी जिं़दगी का फैसला करना होता है। साइंस, आट्र्स या कॉमर्स, क्या बकवास है ये!

इस सिस्टम में चेंज की ज़रूरत है। बच्चों की सही काउंसलिंग होनी चाहिए। उनको फोर्स किया जाए। बहुत हुनर है इनके अन्दर इन्हें दबाना नहीं चाहिए।
एक शब्द है 'ज्ञान' और दूसरा है 'जिज्ञासा' इन दोनों शब्दों में ही दुनिया है, बाकी सब बकवास है, अत्याचार है, इसलिए जब कोई पूछे तुम्हारा विषय क्या है? बोलना यार इंसान हूं मेरा विषय है 'जिज्ञासा'

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