बोला, मां देख मैं दौड़ में अव्वल आया।
पांच का सिक्का दिया इनाम में,
मां मन ही मन मुस्काई,
आज मेरा बेटा खाएगा छोटू मैगी भाई।
इन पंक्तियों में मौजूद शब्दों पर गौर करें और फिर उस परिवेश पर जहां खड़े होकर टीवी पर अमिताभ बच्चन ये पंक्तियां बोलते हैं। एक ज़माने का टू मिनट नूडल्स क्यूं छोटू मैगी में बदल गया? क्यों अचानक लाखन विज्ञापन का हीरो हो गया और क्यूं 10 रुपये के नोट की जगह 5 रुपये के सिक्के ने ले ली? इन सवालों के जवाब ढूंढने निकलेंगे तो समझ आयेगा कि बाज़ार का पूरा गणित अब तेजी से बदल रहा है। और शहरों में सिमटा बाज़ार अब गांवों की तरफ कूच कर रहा है।
अब तक बाज़ार कहते ही जो पहला लफ़ज़ दिमाग में आता था वो था शहर। बड़ी बड़ी दुकानें, बड़े बड़े मौल्स, मल्टीप्लेक्स जो देर रात तक जगमंगाते हुए अपने ग्राहकों को लुभाते रहते हैं उनमें बाज़ार नाम के इस शब्द का अक्स यूं ही देखने को मिल जाता रहा है। लेकिन इस बीच बाज़ार की परिभाषाओं में लुके छिपे ही बहुत कुछ बदलता रहा।
बाज़ार पर अच्छी पकड़ और उसके विस्तार की अच्छी समझ रखने वालों ने महसूस करना शुरु किया कि बाज़ार की परिभाषा में ये बदलाव शहरों से नहीं बल्कि कहीं और से आ रहा है। बड़ी बड़ी मार्केटिंग कम्पनियों ने जब इस पर शोध के लिये अपने विशेषज्ञों का जाल फैलाया तो पता चला कि बदलाव की बयार कहीं और से नहीं बल्कि देश के 70 फीसदी से ज्यादा जनसंख्या को रहने की जगह और खाने कमाने की वजह देने वाले देश के 6 लाख 40 हज़ार गांवों से आ रही है।
छोटे पैकेटों में समाया बड़ा बाज़ार
शोध के जो नतीज़े आये उन्होंने बड़ी से बड़ी कम्पनियों को अपने मार्केटिंग और ब्राडिंग के तरीकों में आमूल चूल बदलाव करने को विवश कर दिया। नतीज़तन टू मिनट नूडल्स, छोटू मैगी की शक्ल में दिखने लगा, शैम्पू के सोफिस्टिकेटेड डब्बों ने 50 पैसे के पाउच का रुप अख्तियार कर लिया, साबुन और क्रीम 4 रुपल्ली के नन्हे से पैकेटों में फिट कर दिये गये, किटकैट की चैकलेट दो रुपये की आने लगी और अठन्नी के सिक्के में नये साल की मुबारक बाद देता ग्रीटिंग कार्ड बाज़ार का हिस्सा हो गया।
गांवों गुमटियों से होता करोड़ों का कारोबार
शहरों में स्ट्रीट लाईट के किनारे नीओन लाईट में जगमगाते बड़े बड़े होर्डिंग्स की चमक से मार्केटिंग स्ट्रेटेजी बनाने वालों की नज़रें हटी तो समझ आया कि बाज़ार की बाज़ीगरी में गांवों की गुमटियां तो अब तक नज़र अन्दाज़ ही होती रही थी। पर आंकणों की असलियत में अब वही छोटी छोटी गुमटियां बड़ी बड़ी कम्पनियों को लुभाने लगी।
रोज़मर्रा के उपयोग में आने वाली साबुन, तेल, आटा, दाल जैसी छोटी छोटी चीज़ें जो मार्केटिंग की भाषा में एफएमसीजी के अन्तर्गत आती हैं, की खरीदारी में गांवों की हिस्सेदारी पूरे 50 फीसदी की है। ग्रामीण भारत में बाज़ार के विस्तार और विकास में विशेषज्ञता रखने वाली कन्सल्टेंसी मार्ट ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि टीवी, फ्रिज़, मोटर साईकिल जैसे उत्पाद जिन्हें कन्ज्यूमर डयूरेबल भी कहा जाता है की 59 फीसदी खपत गांवों में होती है। मशहूर टेलीकौम कम्पनी बीएसएनएल के 50 फीसदी ग्राहक छोटे शहरों और गांवों से हैं। रोज़मर्रा के काम आने वाले उत्पादों का ग्रामीण बाज़ार पूरे 65 हज़ार करोड़ की वकत रखता है। कृषि उत्पादों के ज़रिये ग्रामीण भारत से बाज़ार को 45 हज़ार करोड़ रुपये की कमाई होती है और 8 हज़ार करोड़ रुपये के दुपहिया वाहन ग्रामीण भारत खरीदता है।
कुल मिलाकर 1 लाख 23 हज़ार करोड़ रुपये का ये बाज़ार दूर दूर छिंटके ग्रामीण भारत की गलियों नुक्कड़ों में मौजूद छोटी छोटी दुकानों और गुमटियों की देन है। बाज़ार के पंडित कहते हैं कि ग्रामीण भारत की ये हिस्सेदारी दोगुनी हो गई होती अगर बड़ी बड़ी कम्पनियों ने इस बाज़ार की अहमियत, ग्रामीण खरीदारों के उत्पादों को लेकर व्यवहार और उत्पादों की सही कीमत लगाने जैसी बातें वक्त रहते समझ ली होती।
गांवों के बाज़ार में नये होकर उतरे विज्ञापन
गांवों में अपने बाज़ार को पनपाने के लिये उत्पाद निर्माताओं को जिस बात की सबसे बड़ी दरकार थी वो थी उत्पादों की कीमतों का कम होना। टीवी, प्रिंट और रेडियो पर उत्पादों के विज्ञापनों की पहुंच इतनी नहीं थी कि उसे दूर दराज़ के देहातों और गांवों तक पहुंचाया जा सके। ऐसे में गांवों को केन्द्र में रखके बने विज्ञापनों को मेनस्ट्रीम मीडिया की टाईम लाईन का ज्यादा हिस्सा देना कोई बहुत बड़ी समझदारी का काम नहीं था। जो विज्ञापन बन रहे थे वो शहरी उपभोक्ताओं की खरीददारी की आदतों को ध्यान में रखकर बनाये जाते रहे थे।
लेकिन गांवों के खरीददारों और बाज़ारों दोनों की अपनी अलग विशेषताएं होती हैं। देश के जिन गांवों में हर चार कोष पर वाणी बदल जाती है वहां एक भाषा में ग्राहकों को लुभाने में बाज़ार कामयाब नहीं हो सकता था। ऐसे में विज्ञापनों में नई भाषा और नये तरीके अपनाने की ज़रुरत महसूस हुई। अब टेलीविज़न जैसे दूर संचार माध्यमों की जगह विज्ञापनों को किसी और तरीके से गांवों में पहुंचना था। उनके और पास जाकर उनकी अपनी भाषा में उन्हें अपने उत्पादों की जानकारी देनी थी और उसकी अहमियत समझानी थी। इस पूरी प्रक्रिया में वो गांव ही थे जिन्होंने विज्ञापनों को बेहद नया और ज्यादा रचनात्मक बना दिया। इस तरह गांवों के बाज़ार ने विज्ञापनों की भाषा को भी पूरी तरह से बदल दिया।
अज़ब गज़ब तरीकों से गांवों में होता प्रचार
- गांवों में बिजली की किल्लत के चलते फिलिप ने वरदान नाम से कम वोल्टेज़ पर चलने वाले टेलीविज़न बाज़ार में उतार दिये। ये टीवी 90 से 70 की वोल्टेज पर भी काम करते हैं।
- एशियन पेंट ने उत्सव नाम के अपने पेंट को लौंच करने से ठीक पहले गांवों में सरपंचों के घर पेंट करके अपना प्रचार किया। ताकि गांव वाले समझ सकें कि ये चूने का एक बेहतर विकल्प हो सकता है। तो वहीं एक दूसरी पेंट कम्पनी ने बैलों के सींग पेंट से रंगकर लोगों को अपने ब्रांड के बारे में बताया।
- ग्रामीण इलाकों में बिजली कटौती को ध्यान में रखते हुए फिलिप कम्पनी ने एक ऐसा रेडियो बाज़ार में उतारा जिसे चलाने के लिये न बिजली की ज़रुरत है, न बैटरी की। इस फ्री पावर रेडियो को चाभी भरके चलाया जा सकता है।
- गांवों में होने वाली बिजली कटौती को देखते हुए आईसीआईसीआई जैसे बैंकों ने गांवों के एटीएम को बिजली की जगह बैटरी से चलाने की व्यवस्था की। गांवों को एटीएम कार्ड के तकनीकी झमेले से बचाने के लिये बायोमैट्रिक प्रणाली के ज़रिये एटीएम से पैसे निकालने की व्यवस्था भी बनाई गई। इसके चलते बस उंगलियों के को बहुत आसान बना दिया।
हाट और मेले बने नये उत्पादों की शरणगाह
देशभर के छोटे कस्बों और गांवों में लगने वाले हाटों की संख्या तकरीबन 40 हज़ार है। अकेले उत्तर प्रदेश में ऐसी 10 हज़ार से ज्यादा हाट लगती हैं। इसके अलावा अलग अलग इलाकों में लगने वाले सैकड़ों मेलों में ग्रामीण भारत का आकर्षण आज भी कम नहीं हुआ है। इन हाटों और मेलों ने भी ग्रामीण भारत में नये उत्पादों को जगह बनाने में काफी मदद की। महिन्द्रा कम्पनी ने अपने बाज़ार को स्थापित करने में इन हाटों का भरपूर प्रयोग किया।
बिहार के सोनपुर और वैशाख पूर्णिमा का मेला, गुजरात के नवरात्रि और अम्बाजी का मेला, उत्तर प्रदेश का नौचन्दी और रामलीला मेला और मध्यप्रदेश का कार्तिक मेला जैसे लोकप्रिय मेलों ने शहरी उत्पादों को ग्रामीण भारत में फलने फूलने में अहम योगदान दिया।
क्योंकि नाम में बहुत कुछ रक्खा है
लाइफबॉडी, फेयर एंड लोनली, डेली मिल्क अगर ये नाम अंग्रेजी में लिखे हो तो शायद किसी की आँखे भी धोखा खा जाएँ और इन्हें असली कंपनी के उत्पाद समझ बैठें।
लाइफबॉय की जगह लाइफबॉडी, फेयर एंड लवली की जगह फेयर एंड लोनली और डेयरी मिल्क की जगह डेली मिल्क जैसे बहुत से उत्पाद आपको गाँवों के किराना स्टोर पर आसानी से देखने को मिल जायेंगे। इनकी पैकिंग ऐसे की जाती है कि देखने में भी ये उत्पाद असली ही नज़र आते हैं। कुछ लोग धोखे से तो कुछ जानबूझ कर ये उत्पाद खरीदते हैं क्योंकि इनकी कीमत असली उत्पादों के मुकाबले बहुत कम रखी जाती है। एसी नील्सन रिसर्च एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार एफएमसीजी उद्योग को नकली उत्पादों से सालाना 2500 करोड़ और करीब 30 प्रतिशत व्यापार का नुकसान होता है। इसके अलावा गुणवत्ता खराब होने के कारण असली उत्पाद वाली कंपनी की छवि भी खराब होती है।
इतिहास के आईने में गांवों के बाज़ार
एक वक्त था जब गांवों का बाज़ार वस्तु विनिमय पर चलता था। धान के बदले गुड़, गेहूं के बदले दाल हाटों में लिया दिया जाता है। हांलाकि आज भी कई गांवों के हाटों में वस्तु विनिमय का चलन बांकी है। वस्तु विनिमय के उस बाज़ार में रुपया पैसा कारोबार के गणित में कहीं नहीं था। वस्तुओं की कीमतें माप तोल पर अधारित थी। पन्द्रहवीं शताब्दी में शेर शाह सूरी के शाषनकाल में पहली बार रुपया शब्द का चलन शुरु हुआ। रुपया शब्द जिस रुपा या रुप शब्द से बना उसका मतलब चांदी है। तब चांदी के सिक्के चलते थे जिनका वज़न तकरीबन 12 ग्राम होता था।
उस दौर में विज्ञापन के तरीके बहुत परम्परागत थे। दीवारों और पत्थरों पर नक्काशी की जाती थी। नक्काशी के लिये ऐसी जगहें चुनी जाती थी जहां लोगों की आवाजाही ज्यादा होती थी। डुग्गियां भी उस दौर में विज्ञापन का ज़रुरी ज़रिया थी। बाकायदा व्यापारी डुग्गी पीटने वालों को किराये पर रखते थे। डुग्गियों का ये चलन हाल ही तक भारत के दूरस्थ गांवों में चलता रहा था। आज भी गांवों की हाटों और सब्जी मंडियों पे जांएंगे तो दुकानदार चीखते हुए सब्जियों और फलों को बेचते हुए मिल जाएंगे।
1992 में हिन्दुस्तान यूनिलीवर नाम की कम्पनी ने पहली बार गांवों में घर घर तक जाकर अपने उत्पादों को बेचने की परम्परा शुरु की। औपरेशन भारत नाम की अपनी इस परियोजना की वजह से केवल एक साल में ये कम्पनी एक करोड़ तीस लाख घरों में टेलकम पाउडर, साबुन, क्रीम, टूथ पेस्ट सरीखे अपने उत्पादों को पहुंचाने में कामयाब रही।
पारम्परिक तरीके से शुरु हुए बाज़ार के इन समीकरणों ने इस प्रतियोगी दौर में रचनात्कता की उड़ान भरनी शुरु कर दी है। गांवों में नुक्कड़ नाटकों से लेकर, ईचैपाल तक, बड़े परदों पर अपने उत्पाद का प्रचार करने से लेकर छोटे पैकटों में पैक करके उन्हें बेचने तक उत्पाद निर्माता कम्पनियां किसी भी ज़रिये से गांवों में अपनी पकड़ बनाने को उतावली बैठी हैं। अपनी भौगोलिक, आर्थिक और भाषिक विषमता की वजहकर गांवों के बाज़ार में खुद को भरोसेमंद साबित करना उत्पादों के लिये आसान नहीं है। पर ये बाज़ार है, किसी भी मुश्किल में अपने लिये जगह तलाश ही लेता है।
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