Sunday, 20 January 2013

किसान इन्टरनेट का इस्तेमाल सोशियल नेट्वर्किंग साइट्स के लिए भी करें


किसान नेता होना अब फैशन नहीं रहा बल्कि फैशन के लिए कभी कभी नेता मुरेठा या पगड़ी बांध कर किसान नेता बन जाते हैं। वो दौर चला गया जब किसानों की नाराज़गी से देश की संसद डरा करती थी। राजनीतिक दल उनकी बात ही नहीं करते थे बल्कि किसान नेता प्रमुख पदों पर भी होते थे। अब किसान नेताओं की अहमियत घटते घटते दलों के किसान सेल में जाकर सिमट गई है। किसानों की ज़मीन पर कब्ज़ा करने का दौर शुरू हुआ तो कई जगहों पर किसी सांसद या दल ने नुमाइंदगी ही नहीं की। उनकी लड़ाई जनसगंठन या एनजीओ लड़ रहे थे।कई जगहों पर नेता आए भी तो चालाकी से जनभावना को शांत करने के लिए। उनकी सरकार की नीतियों की वजह से भूमि अधिग्रहण होता रहा और वे किसानों के धरने में आकर सरकार की आलोचना कर जाते हैं। वे जानते हैं कि एक दो पंक्ति बोल देने से कोई फर्क नहीं पड़ता हैबाद में यही किसान अपने मुद्दे छोड़ कर नगदी योजनाओं और जाति के नाम पर वोट तो दे ही देंगे। किसान एक वोट बैंक के रूप में खत्म हो गया है।
 जय जवान और जय किसान का नारा महज़ नारा रह गया है। आप जानते भी हैं कि जो जवान है वही किसान भी है या नहीं तो वो किसान परिवार से है। इसलिए उत्तर प्रदेश के मथुरा का एक जवान लांसनायक हेमराज शहीद हुआ तो परिवार वालों ने शोक की घड़ी में भी गांव के विकास की मांग उठा दी। मजबूर कर दिया कि सेना प्रमुख घर तक चल कर आएं और शहीद को सलामी दें। इससे साफ होता है कि गांव की आवाज़ दिल्ली में खत्म हो गई है। कुछ साल पहले  उड़ीसा में आदिवासी समुदाय के आंदोलन को हथियाने की नियत से एक युवा नेता ने कह दिया था कि मैं दिल्ली में उनका सिपाही हूं। उसके बाद से वो सिपाही आदिवासियों के मोर्चे पर गया ही नहीं। किसानों को हेमराज के परिवार की तरह भावुक क्षणों में भी तार्किक होना पड़ेगा। अपने हालात को बदलने के हर मौके पर नज़र रखनी होगी।  उन्हें भी सिस्टम में अपना हिस्सा मांगना होगा। पार्टियों ने सस्ते बीज और खाद देने का झूठा वादा कर बहुत वोट बटोर लिये। अब आप उनसे सिस्टम का हिसाब मांगिये। पूछिये कि आपके गांव के स्कूल में मास्टर क्यों नहीं पढ़ाताजो पढ़ाता है उसका नाम लीजिए और जो नहीं पढ़ाता है उस पर दबाव बनाइये। किसानों को अपने आंदोलन और मांगों की तस्वीर बदलनी होगी। वर्ना वे लगातार आवाज़ खोते चले जायेंगे।
  
सोशल मीडिया ने उनकी आवाज़ की संभावनाओं को और कमज़ोर कर दिया है। मोबाइल फोन आपके हाथों में हैं। इंटरनेट से लाखों लोग जुड़े हैं। किसान अभी भी उस सोशल मीडिया से गायब है जो आज कल जब चाहे मुद्दों को गरमा देता है और सरकार को झुका देता है। सोशल मीडिया अब उनका वोट क्लब और रामलीला मैदान बन गया है। किसान वहां नहीं पहुंचा है। इंटरनेट का इस्तमाल पैसे से होता है। किसान मोबाइल फोन का सस्ता इस्तमाल तो करता है पर दुनिया को बताने के इस सबसे प्रभावशाली माध्यम के लिए खर्च नहीं कर पाता। वर्ना जिस दिन सोशल मीडिया यानी फेसबुक यानी ट्विटर पर देश का किसान भी आने लगेगाउस दिन बाराबांकी के किसान का मुद्दा महाराष्ट्र के बारामती के किसान का भी मुद्दा बन जाएगा। फिर किसानों को नेता की ज़रूरत नहीं पड़ेगीजो रस्म निभाने के लिए पगड़ी पहन कर आएगा और किसान नेता बन जाएगा। आप जानते ही है कि इंटरनेट पर हर बात तेजी से फैलती है। जनदबाव का दूसरा ही रूप होता है। सरकार भी समझना चाह रही है कि सोशल मीडिया को कैसे साधा जाए।

कई किसानों को लगेगा कि ये फेसबुक या ट्विटर क्या बला है। इसके लिए किसानों को इंटरनेट का इस्तमाल खेती की जानकारी के अलावा भी करना होगा। फेसबुक एक ऐसा मंच है जहां एक आदमी से उसके सारे रिश्तेदार जुड़ जाते हैं। रिश्तेदार समझाने के लिए लिख रहा हूं वैसे एक आदमी के हज़ार से लाख लाख दोस्त हो जाते हैं। अगर आपकी बात में दम है तो आप भी नेता बन सकते हैं वो भी घर बैठे बैठे। यहां पर लोग कई तरह की बातें करते हैं। कई बार बेकार बातें भी। लेकिन फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया ने हमारे सोचने का तरीका बदल दिया है। आपके गांव में कई लड़के शहर में रहते होंगे,वो जब लौट कर आएं तो पूछिये कि बबुआ ज़रा दिखाना,तुमरे फोनवा में फेसबुक कौन बला है। यह जानना इसलिए ज़रूरी है कि अब मीडिया में भी किसान गायब है। वो सिर्फ बजट के दिन दिखता है। बाढ़ में विस्थापित होता दिखता है। रैलियों में जाता है तो मीडिया लिखता है कि पैसे देकर लाये गए हैं। किसान अपनी ताकत खो रहा है। सोशल मीडिया से वो दो दिन में उस ताकत को हासिल कर लेगा। दिक्कत ये है कि मोबाइल फोन पर हिन्दी में लिखना अभी भी आसान नहीं है। बीस से पचास हज़ार के फोन में तो ये सुविधा है लेकिन आप किसान जिस फोन का इस्तमाल करते हैं उसमें लिखने की सुविधा है भी तो बेहद कमज़ोर। जिस दिन यह तकनीक महंगे फोन से आपके फोन में आएगी आप भी इस्तमाल करने लगेंगे।
 अच्छा लगेगाआपके गांव की समस्या अखबार में छपने से पहले अमरीका में बैठे पड़ोस के गांव के लड़के या लड़की तक पहुंच जाएगी। क्योंकि मीडिया भी गांवों में नहीं पहुंचा है और जो हालत है अब कभी नहीं पहुंचेगा। इसलिए किसानों  को सोशल मीडिया के ज़रिये मीडिया और दुनिया में पहुंचने का जुगाड़ ढूंढना चाहिए। कम से कम किसान फेसबुक और ट्विटर के बारे में जानना तो शुरू कर दें। सरकार भी आजकल जनदबाव के मंच के रूप में सोशल मीडिया को स्वीकार करने लगी है। सभी राजनीतिक दल इसकी तैयारी कर रहे हैं। लेकिन डर यही है कि अगर सरकारों ने सोशल मीडिया के ही जनदबाव को सच मान लिया तो उसमें किसान,आदिवासी और हाशिये पर बैठे लोग पीछे रह जाएंगे। उनकी आवाज़ अनसुनी रह जाएगी। वर्ना पगड़ी पहनकर कोई युवा नेता एक दिन के लिए किसान नेता बनकर आएगा,जाल बिछायेगा,दाना डालेगा और आप उसके जाल में फंसते रहेंगे।

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