Monday 13 May, 2013

माताओं को नहीं मिलती मूलभूत स्वास्थ्य सुविधाएं


नई दिल्ली। विश्वभर में हर साल दस साल से ज्यादा बच्चे जन्म लेने के चौबीस घंटे के भीतर मर जाते हैं। इनमें से 29 प्रतिशत यानि 309,000 बच्चे भारत में मरते हैं। सेव द चिल्ड्रेन ने अंतरराष्ट्रीय आंकड़ों के साथ वल्र्ड मदर्स डे पर मांओं और नवजात शिशुओं की हालत पर एक रिपोर्ट जारी की है जिसके अनुसार नवजात शिशुओं की मृत्यु-दर कि दिशा में पूरी दुनिया, और ख़ासकर भारत को एक लंबा रास्ता तय करना है। इसके अलावा रिपोर्ट ने माताओं की चिंताजनक हालत पर भी प्रकाश डाला है। 

पिछले कुछ सालों में विश्व की दूसरी सबसे अधिक आबादी वाले देश भारत में शिशुओं की मृत्यु-दर को लेकर लंबी बहस छिड़ती रही है। राष्ट्रीय स्तर पर भी नीति-निर्माण के लिहाज़ से इस मुद्दे को अहम माना जाता रहा है। बावजूद इसके भारत में जन्म के तुरंत बाद मरने वाले बच्चों की संख्या कम नहीं हुई। 

स्वास्थ्य सुविधाओं और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं का अभाव इसकी एक बहुत बड़ी वजह है। रिपोर्ट के अनुसार 23 $फीसदी नवजात शिशुओं की मौत जन्म के दौरान होने वाली पेचीदगियों से होती है जबकि 35 $फीसदी बच्चे वक्त से पहले पैदा होने के कारण मौत का शिकार होते हैं। मेनिन्जाइटिस और निमोनिया जैसी बिमारियों की वजह से 24 फीसदी बच्चों की जान चली जाती है।

भारत सरकार के सैंपल रजिस्ट्रेशन सर्वे के मुताबिक मध्य प्रदेश में नवजात शिशु मृत्यु दर सबसे अधिक है जिसके बाद उत्तर प्रदेश और उड़ीसा का स्थान आता है। अन्य राज्यों में राजस्थान, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड और जम्मू-कश्मीर जैसे राज्य शामिल हैं। केरल में नवजात शिशु मृत्यु दर सबसे कम है और दिल्ली, तमिलनाडु और महाराष्ट्र जैसे राज्यों ने भी इस दिशा में प्रगति की है। इस सर्वे से साफ़  तौर पर यह ज़ाहिर हो जाता है कि यदि हमें नवजात शिशुओं को बचाना है तो इसके लिए सबसे पहले गाँव और ब्लॉक के स्तर पर पहल शुरू करनी होगी। दक्षिण भारत के राज्यों के उदाहरणों से स्पष्ट है कि बच्चों और माताओं का स्वास्थ्य, स्वास्थ्य सेवाओं के अलावा शिक्षा के स्तर और सामाजिक मान्यताओं पर भी निर्भर करता है। उत्तर भारत में जहां अभी भी प्रसवकाल के दौरान माताओं को अस्पताल ले जाने का प्रचलन नहीं है वहीं दक्षिण भारत में इसको लेकर जागरुकता अधिक है। इसके अलावा मां की उम्र पर भी नवजात शिशुओं का स्वास्थ्य निर्भर है। मां की उम्र जितनी ही कम होगी, बच्चे को बचाना या उसे उचित पोषण दे पाना उतना ही मुश्किल होगा। 
नवजात शिशुओं और मां के स्वास्थ्य को लेकर डॉक्टर अभय बांग के मॉडल को देशभर में लागू किए जाने की मांग जोर पकडऩे लगी है। 2006 में जननी सुरक्षा योजना शुरू की गई जिसके तहत प्रसव के लिए अस्पताल जाने वाली महिलाओं को आर्थिक सहयोग दिए जाने का प्रावधान है। इसके बावजूद न मातृ मृत्यु दर में कमी आई न नवजात शिशुओं के मृत्यु दर में। ज़ाहिर है, स्वास्थ्य सेवाएं भारत में अभी भी एक बड़ी चुनौती हैं। इसलिए डॉ बांग के मॉडल को प्रोत्साहन देने की बात कही गई है जिसके अनुसार महिलाओं को घर में ही प्रसव करा पाने के लिए गाँव की महिलाओं को प्रशिक्षित किया जाता है। 

किसी भी महिला के लिए बच्चे को जन्म देना एक स्वाभाविक प्रक्रिया का हिस्सा माना जाता है। लेकिन इसका ये कतई मतलब नहीं कि उन्हें स्वास्थ्य सुविधाओं से  किसी भी रूप में वंचित   रखा जाए। मदर्स डे का सही उद्देश्य तभी पूर्ण हो पाएगा जब    हम हर मां और हर बच्चे को एक स्वस्थ जीवन जीने की अधिकार             दे पाएंगे। 


माताओं के लिए काम कर रहे हैं डॉ. अभय बांग 

अमेरिका के जॉन हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी से मेडिकल की पढ़ाई कर भारत लौटे डॉ अभय बांग ने गाँवों में स्वास्थ्य सेवा पहुंचाने का बीड़ा उठाया। डॉ बांग चाहते तो किसी भी बड़े शहर में रहकर करोड़ों रुपए कमाते। लेकिन उन्होंने स्वास्थ्य सेवा के लिहाज़ से सबसे बड़ी चुनौती, माताओं की सुरक्षा पर काम करने का $फैसला किया। उनके इस मिशन में उनकी पत्नी डॉ रानी बांग उनकी सहयोगी बनीं और दोनों ने मिलकर एक बेहद पिछड़े जि़ले, गढ़चिरौली के गाँवों की महिलाओं को प्रसव के दौरान महिलाओं को बचाने के लिए गाँवों के स्तर पर कम्युनिटी कार्यकर्ताओं की एक टोली की ट्रेनिंग शुरू की। गाँव की ये महिलाएं प्रसव के दौरान एक-दूसरे की सहायता करती थीं और सुरक्षित प्रसव के लिए तत्पर रहती थीं। उनकी इस कोशिश का असर ये हुआ कि इन गाँवों में मातृ मृत्यु-दर और नवजात शिशु मृत्यु दर न के बराबर रहा। डॉ बांग के इस मॉडल का अनुसरण करते हुए गांवों के स्तर पर महिलाओं की इसी ट्रेनिंग की मदद से राष्ट्रीय स्तर पर सामुदायिक स्वास्थ्य सेवा को बेहतर बनाया जा सकता है।  

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