Monday 13 May, 2013

पहले परिवार के भीतर बंद हो हिंसा



मैं जयपुर के एक गाँव के सरकारी स्कूल में लड़कियों और महिला शिक्षकों का इंटरव्यू कर रही थी। हमें एक शोध के तहत कुछ आंकड़े जमा करने थे। लड़कियां तो ख़ैर यूं भी कच्ची उम्र की थीं। उन्हें खुलकर बोलना और अपनी बात कहना कम ही सिखाया जाता है। दबे-कुचले समाज की इन बेटियों को विरासत में डर और शोषण मिलता है। शिक्षा वो औपचारिकता होती है जो शादी के बाज़ार में खड़ा कर देने भर के लिए काम आती है। घरेलू काम-काज जि़न्दगी भर के लिए दे दिया जाने वाला हुनर होता है। वैसे भी ये मानी हुई बात है कि लड़कियां चाहे जितना पढ़-लिख लें, चाहे जितनी आज़ाद हो जाएं और चाहे जितनी बड़ी अ$फसर बन जाएं, उन्हें घर के काम करना तो आना ही चाहिए।


ख़ैर, मैं मालती नाम की एक लड़की से बात कर रही थी। अचानक ध्यान दिया कि उसकी कलाई पर गहरा ज़ख्म था। पूछा कि कैसे हुआ तो उसने बड़े इत्मीनान से कहा, चोट लग गई। मैंने पूछा, ये चोट के निशान तो नहीं हैं। किसी ने दांतों से काटा है। मालती हंस पड़ी और बोली, हां भाई ने। हमारा झगड़ा हुआ था। उसने बड़े आराम से बताया। 

हम इस बारे में और बात करने लगे। मालती ने बताया कि उसके और उसके भाई में तीन साल का अंतर है। ज़ाहिर है, दोनों में झगड़ा होता है, जैसा कि सभी भाई-बहनों में होता है। भाई ताक़तवर है, इसलिए बहन पर भारी पड़ता है। ये चोट और उसका हाथ उठ जाना रोज़-रोज़ की बात है। मैं हैरान थी। मैंने पूछा कि घर में भाई को कोई कुछ कहता नहीं है? मालती ने बहुत आराम से जवाब दिया, भाई को क्यों कहेगा कोई? मुझे कहते हैं न। कहते हैं कि तुम ही मत उलझा करो। जवाब मत दो। लड़ो मत। उससे दूर रहो, वगैरह-वगैरह। एक बार भाई ने बहुत मारा था उसे। जब मालती ने पलटकर अपना हाथ उठाया तो उसे धूप में घंटों खड़े रहने की सज़ा दे दी गई। मां ने भी बेटी पर ही हाथ उठाया। इसलिए मालती अब चुपचाप बर्दाश्त कर लेती है। 

लड़कियों के साथ हो रही इस तरह की शारीरिक हिंसा को पारिवारिक मसला मान भी लिया जाए तो परिवार में होते हुए भी हम एक गलत परंपरा को शह नहीं दे रहे? क्या लड़कों को खुलेआम पहले अपनी बहनों और उसके बाद अपनी बीवियों के साथ ज़्यादती करने की छूट नहीं दी जा रही इस तरह? हैरानी की बात तो यह है कि लड़कियां भी बड़ी आसानी से इसे अपनी नियति मान लेती हैं। मार खाने के खिला$फ आवाज़ कोई उठाता नहीं क्योंकि कोई फ़ायदा नहीं। घर के मसले बाहर क्यों ले जाएं? और फिर धीरे-धीरे यही हाथ उठना पारिवारिक हिंसा की नींव तैयार कर देता है। परिवार के स्तर पर ही हम लड़कियों को चुप रहना और लड़कों को कुछ भी करते रहना सिखाते हैं। परिवार के स्तर पर ही हम एक बड़ी सामाजिक समस्या की नींव डाल देते हैं। 

महिला और बाल कल्याण मंत्रालय के मुताबिक भारत की सत्तर फ़ीसदी महिलाएं किसी न किसी रूप में पारिवारिक हिंसा का शिकार होती हैं। हर तीसरे मिनट महिलाओं के खिलाफ़ कोई न कोई अपराध होता है। 
हर उनतीसवें मिनट पर एक महिला के साथ बलात्कार होता है। हर सत्तरवें मिनट पर दहेज के लिए किसी बहू की जान ले ली जाती है। ये वो आंकड़े हैं जिन्हें नेशनल क्राइम रिकॉड्र्स ब्यूरो ने दर्ज किया है। मालती के जैसी कई और लड़कियां और महिलाएं भी होंगी जो अपने साथ हो रही ज़्यादतियों के बारे में बताने की ज़रूरत तक नहीं समझती होंगी। 

घरेलू हिंसा पूरी तरह कभी ख़त्म हो पाएगी, ये मुमकिन नहीं। लेकिन किसी भी बदलाव के लिए पहली तैयारी सबसे निचले स्तर पर सबसे छोटे और सूक्ष्म रूप में करनी होती है। परिवार अगर बेटों को अपनी बहनों और बेटियों की इज़्जत करना सिखाएगा तो बाद में पुरुष समाज महिलाओं की इज़्जत करना भी सीखेगा। परिवार में बेटियों को मारना एक आम सी बात मानी जाएगी तो फिर हम किसी भी तरह का कानून क्यों न बना लें, महिलाओं के खिलाफ़  हो रही हिंसा कभी नहीं थमेगी।

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