Tuesday 5 February, 2013

जाति.धर्म का मनुवादी तराजू



शिव बालक मिश्र
प्रधान संपादक गॉँव कनेक्शन
आधुनिक विज्ञान के युग में हम गरीबी, अशिक्षा, पिछड़ेपन, भ्रष्टाचार या आतंकवाद के अध्ययन के लिए घिसे-पिटे मनुवादी तराजू पर ही निर्भर हैं। 

आशीष नन्दी जो एक साहित्यकार और समाजसेवी हैंए उन्होंने जयपुर के साहित्य सम्मेलन में विद्वानों के बीच में कह दिया कि अनुसूचित और पिछड़ी जातियों में अधिक भ्रष्टाचार है। मुझे नहीं मालूम कि उनके पास ऐसा कहने का कोई आधारए कोई आंकड़े हैं या नहींए उन्होंने कोई सर्वेक्षण अथवा अध्ययन किया है अथवा नहीं। यदि नहीं, तो यह बात किसी बुद्धिजीवी के मुंह से नहीं निकलनी चाहिए थी और देश के बुद्धिजीवियों को बोलने की आजादी के नाम पर उनका समर्थन नहीं करना चाहिए। उन्होंने माफी मांगकर इस अध्याय को समाप्त करने की कोशिश की थी, परंतु विवाद थमता नहीं दिखता। 

इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि हमारे देश में सामाजिक आंकलन के लिए केवल जाति या फिर धर्म का ही तराजू प्रचलित है। गरीबीए अशिक्षा, पिछड़ापन, भ्रष्टाचार और आतंकवाद नापने के लिए जाति-धर्म का घिसा पिटा मनुवादी तराजू ही सरकार और समाज द्वारा प्रयोग में लाया जाता है। ऐसी परिस्थिति में यदि आशीष नन्दी भ्रष्टाचार को और रामविलास पासवान गरीबी और पिछड़ेपन को जाति के तराजू से नापते हैं या दिग्विजय सिंह आतंकवाद को धर्म के तराजू पर तौलते हैं तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। सच यह है कि दूसरा तराजू उनके पास है ही नहीं।

सरकारी सोच पहले ही इस निर्णय पर पहुंच चुकी है कि अनुसूचित और जनजातियां सबसे गरीब हैं। इसके बावजूद उनके बीच से एक से बढ़कर एक विद्वान, पराक्रमी और शूरवीर निकले हैं जिनकी जानकारी अब बनवाए गए स्मारकों के माध्यम से हमें हो रही है। हमारे राजनेताओं को सामाजिक अध्ययन के लिए महर्षि मनु द्वारा बनाए गए जाति आधारित मापनी के बाहर कुछ नहीं दिखाई देता। अशिक्षाए गरीबी और पिछड़ेपन का अध्ययन करते समय वे भूल जाते हैं कि गरीबीए अमीरी और पिछड़ापन स्थायी नहीं होतेए सुदामा हर जाति और धर्म में पाए जाते हैं।

केवल सरकार ही नहींए बल्कि मंडल कमीशन ने भी पाया कि अनुसूचित जातियों, जनजातियों के अतिरिक्त अन्य कुछ जातियां हैं जो पिछड़ी हैं। पैमाना जाति का ही रहा और अन्य पिछड़ी जातियों को जाति आधारित सुविधाएं देना आरंभ हो गया। अनेकों जातियां आंदोलन करने लगीं कि हमारी जाति भी पिछड़ी है, हमें भी आरक्षण चाहिए। जाति आधारित सम्मेलन होने लगेए चुनाव के लिए जाति आधारित टिकट मिलने लगे, इसी आधार पर मंत्री और अधिकारी बनने लगे। कितने नादान हैं ये लोग जो इस रास्ते पर चलकर जातिभेद मिटाना चाहते हैं। कम से कम आशीष नन्दी को यह भूल तो नहीं करनी चाहिए थी। यदि वह बुद्धिजीवी हैं तो उन्हें जाति से हटकर कोई सेक्युलर पैमाना ढूंढऩा ही चाहिए था।

जाति के अलावा जो दूसरा पैमाना खोजा गया वह तो और भी घातक नजर आता है। सच्चर कमीशन की रिपोर्ट आई जिसने बताया कि देश का मुस्लिम समाज तो अनुसूचित लोगों से भी पिछड़ा है। इस बात से कौन इनकार करेगा कि इस्लाम धर्म के मानने वालों ने भारत पर 1000 साल तक हुकूमत की है, कोई उन्हें शिक्षा और नौकरी से वंचित नहीं कर सकता था जिस प्रकार दलितों को किया गया था। मुस्लिम समाज क्योंए कब और कैसे पिछड़ गया? फि र से धर्म आधारित बंटवारा आरंभ हो गया। बात यहीं पर रुकी नहीं।

हमारे देश के गृहमंत्री ने कह दिया कि हिन्दू आतंकवाद बढ़़ रहा है अर्थात आतंकवाद को भी धर्म और जाति के तराजू से ही तौलना होगा। कुछ लोगों ने कहा आतंकवाद भगवा रंग का होता है। इसके पहले इस्लामिक आतंकवाद की भी बातें होती रही हैं। हम अपने को सेक्युलर कहते हुए नहीं थकते परन्तु गरीबी, अशिक्षा, पिछड़ापन और आतंकवाद यहां तक कि भ्रष्टाचार तक को नापने के लिए सेक्युलर पैमाना नहीं ढूंढ पाते, वहीं पुराने मनु के बनाए तराजू पर सब कुछ तौलना पड़ता है।

जाति और धर्म का तराजू गाँव और शहर दोनों में एक समान चलता है। गाँव की पंचायतों के चुनाव जातीय आधार पर होते हैं इसलिए हमारा समाज जातीय आधार पर लामबंद होता जा रहा है। जातियों के बीच आज जो तनाव है वह गुलाम भारत में भी नहीं था। अब जातियों के आधार पर सम्मेलन होते हैं और जातीय अभिमान जगाते हुए नारे लगते हैं, आन्दोलन होते हैं। ऐसे में आशीष नन्दी जैसे लोगों को युगों से चली आ रही जातियां ही दिखाई देंगी। परन्तु वैज्ञानिक आधार पर किया गया अध्ययन तो ऑब्जेक्टिव (तथ्यात्मक)) और क्वांटीफाइड (गणनाधारित) होना चाहिए, यह कोई आस्था का विषय नहीं है।

पिछड़ापनए गरीबी और अशिक्षा का सीधा संबन्ध किसी क्षेत्र विशेष के संसाधनों और सुविधाओं से होता है। सुविधाएं मिलने पर सभी वर्गों के लोग शांति से विकास करते हैं। भ्रष्टाचार को जातियों से और आतंकवाद को धर्मों से जोडऩा ठीक नहीं। वास्तव में जाति और धर्म के आधार पर आंकड़े एकत्र करने के बजाय क्षेत्रों को इकाई मानकर अध्ययन होने चाहिए। जाति और धर्म से ध्यान हटकर क्षेत्रीय विकास पर चला जाएगा और यह जातीय संघर्ष और धार्मिक उन्माद से बचने का एक तरीका हो सकता है।

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