Monday 18 February, 2013

ये डर से छुटकारे की लड़ाई है


मुझे आजतक उसकी शक्ल नहीं भूली जबकि इस बात को कुछ दस साल हो गए हैं। सूजा हुआ चेहरा, आंखों के नीचे काले धब्बे और गर्दन पर चोट के निशान। ये ज़ख़्म दिखते थे। जो नहीं दिखाई दिए, वो उसके मन पर लगे गहरे ज़ख़्म थे। नेहा (बदला हुआ नाम) डॉक्टर थी और हमारी दूर की रिश्तेदार भी। बहुत धूमधाम से मां-बाप ने एक बड़े अफ़ सर से अपनी बेटी की शादी की। दान-दहेज नाम के गैर-ज़रूरी बोझ का आदान-प्रदान जो किया, सो अलग। नेहा पहले ससुराल गई और फि पति के साथ उस शहर, जहां उनकी पोस्टिंग थी। पहली बार नेहा पर पति का हाथ ऑमलेट जला देने की सज़ा के तौर पर उठा था। दूसरी बार बेल्ट नहीं खोज पाने की वजह से। तीसरी बार के बाद नेहा वजह ढूंढना बंद कर चुकी थी। नेहा प्रैक्टिस करना भी बंद कर चुकी थी, और घर से निकलना भी। कई दिनों तक उसने अपने मां-बाप से अपनी तकलीफ़ें  इसलिए छुपाए रखीं कि इतनी मुश्किल से हुई शादी जो टूट गई तो फि समाज में क्या मुंह लेकर जाएंगे। इसलिए नेहा पिटती रही, और एक दिन थककर नींद की गोलियां खाकर खुदकुशी करने की कोशिश की जिसके बाद उसके साथ हुई घरेलू हिंसा की सच्चाई सबको मालूम हुई।

आपको ये जानकर तसल्ली होगी कि नेहा के मां-बाप ने उसका साथ दिया और इस ज़ालिम रिश्ते से उसे मुक्ति दिलाई। नेहा की बदनसीबी बहुत दिनों तक साथ नहीं रही, लेकिन इस दुनिया में नेहा की तरह हर तीसरी औरत किसी ना किसी तरह की ज़्यादती या शोषण का शिकार होती है। मैं जब कॉलेज में थी तब एक वर्कशॉप का हिस्सा थे हम। बीस-इक्कीस साल की लड़कियों का कुल पच्चीस का समूह था। वर्कशॉप के आखिऱ में जब हमसे पूछा गया कि हममें से कितनी लड़कियां किसी ना किसी तरह के शोषण की साक्षी रही हैं, तो आपको यकीन नहीं होगा, लेकिन पच्चीस में से पच्चीस लड़कियों ने हाथ उठाए थे यूं कि जैसे शोषण, ख़ासकर यौन शोषण या हिंसा हमारी जि़न्दगी का हिस्सा बन चुका हो जैसे। वैसे आपकी जानकारी के लिए ये भी बता दूं कि सारी लड़कियां मध्यवर्गीय या उच्च मध्यवर्गीय शिक्षित परिवारों से थीं। यानी महिलाओं के खि़लाफ़  होने वाली हिंसा का सामाजिक या आर्थिक स्थिति से कोई लेना-देना नहीं होता। बल्कि सोचने का मुद्दा तो ये है कि जब शिक्षित और स्वतंत्र कही जाने वाली लड़कियों और महिलाओं की ये स्थिति है तो गाँवों या कस्बों में, या फि आर्थिक रूप से कमज़ोर परिवारों की औरतों की क्या हालत होती होगी?

इस वैलेन्टाइन्स डे पर प्यार ने एक नया नाम ले लिया वन बिलियन राइजि़ंग का जो दुनिया की आधी आबादी की सुरक्षा, इज्ज़त और प्यार के हक़ में उठने वाली आवाज़ थी। अमेरिका की स्त्रीवादी लेखिका ईव एन्सलर ने इस आंदोलन का बिगुल बजाया और दुनिया के 200 देशों तक इसकी आवाज़ पहुंची। ऐसे आंदोलन, इस तरह के कैंपेन कारगर इसलिए होते हैं क्योंकि इसी बहाने कालीन के नीचे बुहारकर छुपा दिए गए मुद्दों पर खुलकर बात होती है। ये भी सच है कि सिर्फ  झंडे उठाने और बिगुल बजाने से समाज या परिवेश नहीं बदलेगा। लेकिन कहीं तो शुरूआत हो। कहीं तो वो जगह मिले कि जहां खुलकर बात हो। ये बेचैनी बराबरी की लड़ाई से ज़्यादा इज्ज़त और सम्मान के लिए है, अपनी सुरक्षा के लिए है। उस डर से निजात के लिए है जो हम औरतें पहले अपने लिए पालती हैं, फि अपनी बेटियों और बहुओं के लिए। उस डर से निजात के लिए है जो घर में, खेत में, दफ्तर में, बाज़ार में, सड़क पर, बस में, ट्रेन में, टैक्सी में, फुटपाथ पर, युद्ध के दिनों में अमन-शांति के दौरान  कहीं, कभी हमारी पीछा नहीं छोड़ता। मुद्दा सिर्फ  नेहा के घरेलू हिंसा से बचकर निकलने का नहीं है। मुद्दा इतना बड़ा है कि इसे सुलझाने में कई पीढिय़ां लगेंगी। शुरुआत आज से तो हो।

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