Tuesday 30 April, 2013

गाँवों की राजनीति में बढ़ रही महिलाओं की भागीदारी



पंकज कुमार 
 कुरनूल जनपद की काबला ग्राम पंचायत को सरकार की तरफ  से 'बेस्ट' पंचायत का इनाम मिला है। काबला ग्राम को बेस्ट पंचायत का खिताब दिलाने वाली कोई और नहीं बल्कि एक 36 वर्षीया महिला सरपंच फातिमा बी हैं। हमेशा चाहरदीवारी में रहने वाली फातिमा बी को सरपंच बनने से पहले कुछ नहीं आता था। महिला सशक्तिकरण  की नजीर पेश करती फातिमा बी अकेली महिला नहीं है जिन्होंने सरपंच बन कर अपने गाँव का नाम रोशन किया है। उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, हरियाणा, कर्नाटक, केरल, गुजरात, मध्य प्रदेश, मणिपुर समेत में देश के विभिन्न हिस्सों में महिलाओं ने अपने काम से अपने ग्राम पंचायत का नाम रोशन किया है।

 हरियाणा के फरीदाबाद जिले के होडल ब्लाक की ग्राम पंचायत बाघापट्टी की महिला सरपंच ने अपने गाँव में पानी की समस्या के लिए सचिव को निर्देश दिया कि वह एसडीओ स्वास्थ को कहे कि गाँव की पानी व्यवस्था को सुधारे। सचिव ने इस बात के लिए एसडीओ को अर्जी दी लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला। अंत में महिला सरपंच खुद एसडीओ के पास गयी और कहा कि पानी  की कमी की वजह से मानव और पशू  दोनों ही परेशान है। एसडीओ ने अपने सरकारी आवाज में कहा की मेरे पास टाइम नहीं है। इस पर सरपंच ने कहा की आप कह रहे हो की मेरे पास टाइम नहीं है और उधर हम और हमारे पशु पानी के बिना तरस रहे हैं। इसलिए आराम से गाँव चलो नहीं तो कलाई (गट्टा) पकड़ कर घसीटती हुई ले जाऊँगी   सरपंच का इतना कहना था कि एसडीओ बहाना छोड़ कर गाँव जाने के लिए तैयार हो गये और एक दो दिन में ही पानी की व्यवस्था ठीक हो गयी।

महिलाओं को पंचायतों में उनके अधिकार इतनी आसानी से नहीं मिले है। ग्राम पंचायतों में उनके अधिकार दिलाने की लड़ाई लम्बी रही है। कभी धर्म के नाम पर तो कभी सामाजिक आदर्शो के नाम पर महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित किया जाता रहा है। हिन्दू शास्त्रों में लिखा है कि धर्मानुसार स्त्री को बाल्यावस्था में पिता के संरक्षण में, युवावस्था में पति के संरक्षण में और पति के देहांत हो जाने के बाद पुत्रों के अधीन रहना चाहिए। भारत में नारी को जन्म लेते ही सिखा दिया जाता है की वो किसी और घर की है, किसी और की अमानत है। शायद इसी सोच के कारण आजादी मिलने अगले 46 वर्षों तक महिलाओं की संख्या पंचायतों में लगभग नगण्य रही है। देश आजाद होने के बाद पंचायतें तो बनी लेकिन उसमे महिलाओं को उनके अधिकार नहीं मिले। साल 1992 में संविधान के 73 एवं 74 वे संशोधन के द्वारा पंचायतों में महिलाओं के लिए एक तिहाई जगह आरक्षित की गयी। संविधान के 73 एवं 74 वे संशोधन में अनुसूचित और अनुसूचित जनजाति की महिलाओं के लिए भी आरक्षण की व्यवस्था की गयी।


24 अप्रैल 1994 से देश भर की पंचायतों के लिए यह नियम लागू हो गया। हालांकि कुछ राज्यों ने महिला सशक्तिकरण के लिए अपने यहां 33 प्रतिशत से ज्यादा महिला आरक्षण की व्यवस्था की जैसे कि बिहार में 50 प्रतिशत, आसाम में 50 प्रतिशत, कर्नाटक में 43 प्रतिशत, केरल में 39 प्रतिशत, पश्चिम बंगाल में 37 प्रतिशत है। भारत सरकार के इस प्रयास का ही नतीजा है कि आज देश भर में कुल 10 लाख से ज्यादा महिलाए पंचायतों में हैं और लगभग 40 प्रतिशत पंचायतों पर महिलाओं का कब्ज़ा है। हाल ही में गुजरात सरकार ने महिला सशक्तिकरण के लिए एक अच्छी पहल करते हुए समरस योजना चलायी हैं जिसके तहत प्रदेश सरकार उन पंचायतों को पांच लाख का इनाम देगी जिस गाँव के सरपंच समेत सभी प्रतिनिधि महिलाएं हो। प्रदेश सरकार की इस योजना का ही परिणाम है की 254 गाँवो ने एक नयी इबारत लिखते हुए अपने गाँवो की बागडोर पूरी तरह से महिलाओं को दे दी है। जिसमे बहुत सी युवा लड़कियां भी शामिल है जो कॉलेज में पढ़ती है। गुजरात के ही एक गाँव सिसवा में पिछले 3 बार  से लड़कियों को ही ग्राम प्रधान बनाया जा रहा है वो भी सर्वसहमति से। इस बार हीनल पटेल को गाँव वालों ने नया ग्राम प्रधान चुना है। हीनल पटेल बीएससी नर्सिंग की छात्रा है। हीनल पटेल कहती है कि ''गाँव में स्वास्थ सुविधाओं को ठीक करना उनकी प्राथमिकता होगी।"

संविधान के 73 वे एवं 74 संशोधन के द्वारा सरकार ने महिलाओं को कानूनी रूप से अधिकार तो दे दिया लेकिन महिलाओं को अपने सामाजिक अधिकार के लिए लम्बी लड़ाई लडऩी पड़ी है जो अभी तक चल रही है। क्राइस्ट चर्च कॉलेज के राजनीति  विज्ञान के प्राध्यापक डॉ अनिल कुमार वर्मा कहते है ''महिलाओं को उनके अधिकार तो मिल गये लेकिन उसके प्रयोग की स्वतंत्रता नहीं मिली। महिला सशक्तिकरण वास्तव में तब होगा जब हम महिलाओं को महिला ना कह कर उन्हें भारत के एक नागरिक के रूप में देखेंगे।" महिला सरपंचों पर भले ही आज ये आरोप लगते हैं कि वो अपने पति की कठपुतली हैं लेकिन पंचायतों में बढ़ती उनकी सहभागिता और पुरुषों की तरह उनके बेबाक निर्णय लेने की क्षमता ने इन आरोपों को मिथ्या साबित कर रहे है |



ग्रामीण राजनीति पर सीएसडीएस के सीनियर फेलो और राजनीतिक विश्लेषक डॉ अनिल कुमार वर्मा से बातचीत के कुछ अंश



सवाल: 73 वे संवैधानिक संशोधन ने किस तरह से महिलाओं को पंचायतों से जोड़ा।
जवाब: 73 वे संविधानिक संशोधन के माध्यम से महिलाओं का एक बड़ा तबका राजनीति  में आया है। संख्या बल के आधार पर तो बहुत बड़ा बदलाव आया है। इससे पहले केवल 4-5 प्रतिशत ही महिलाएं  राजनीती में आती थी क्योंकि गाँवों के जो परिवेश है जो पर्दानशीं है वो महिलाओं को राजनीति  में आने से रोकता है। लोकतंत्र के मार्ग में सबसे बड़ा रोड़ा हमारी संस्कृति ही रही है तो सिर्फ  अपवाद स्वरूप महिलाएं  ही राजनीति  में आ पाती थीं। आज 33 प्रतिशत महिलाओं को तो पंचायतों में आना ही है चाहे प्रॉक्सी कैंडिडेट के रूप में ही आयें।

सवाल: इस संशोधन के माध्यम से बहुत सी महिलाएं  पंचायतों में तो आगयी लेकिन  आरोप लगते रहे हैं कि उनके  पति उन्हें कठपुतली की तरह इस्तेमाल करते है। इस सोच को कैसे बदला जायें?
जवाब: लोकतंत्र का पहला चरण होता है अस्मिता की राजनीति   अब तक तो आपको कोई पहचानता ही नहीं था लेकिन जैसे ही महिलाएं राजनीति  में आयीं उन्हें लोग पहचानने लगे। तो महिलाओं को पहचान तो मिली लेकिन सहभागिता के आगे का जो चरण होता है जिसे हम सशक्तिकरण कहते है वो बड़ा महत्वपूर्ण होता है महिलाएं  राजनीति  में अपने पति, पिता या परिवार के बलबूते पर आयीं और उन्हें हमने एक नागरिक के रूप में नहीं स्वीकार किया है उन्हें हमने किसी पुरुष की पत्नी के रूप में ही स्वीकार किया है। सशक्तिकरण का मतलब होता है की जब आप कोई काम करते है तो उस काम की निर्णयन क्षमता आपके अन्दर होनी चाहिए। महिलाएं चुन कर तो आ जाती हैं लेकिन जब निर्णय लेने की बात आती है तब उनके पुरुष पार्टनर या परिवार वाले ज्यादातर हस्तक्षेप करते हैं  या बहुत से जगहों पर तो महिला सिर्फ  नाम की प्रधान होती है बाकी सारे काम तो उसके पति ही करते हैं यहां तक की कागजों पर हस्ताक्षर भी वही करते हैं और उसको समाज मान्यता भी दे देता है। अभी उनका वास्तविक सशक्तिकरण नहीं हुआ है। उन्हें संस्कारों से लडऩा है परिवार से भी जूझना है अभी राजनीति का संक्रमण काल चल रहा है हालांकि यह लम्बा जरूर है लेकिन एक दिन बदलाव होगा।

सवाल: संविधान के द्वारा महिलाओं को अधिकार मिले लगभग 20 वर्ष हो गये लेकिन आज भी उन्हें उनका अधिकार नहीं मिला, आखिर कमी कहां रह गयी।
जवाब: बात अधिकारों की नहीं है बात अधिकारों के प्रयोग की है। गाँवों में जो भी महिलाये हैं, माताएं हैं  जो शिक्षा से वंचित है या जो बहुत कम पढ़ी-लिखी हैं उन्हें शिक्षित होना होगा। जिससे वो अपने अधिकारों का स्वत: प्रयोग कर सकें |  सरकार की तरफ  से जो कमी रह गयी है वो यह है कि सिर्फ  पैसा दे देने या महिलाओं को आरक्षण दे देने से ही महिलाओं का विकास नहीं होगा। ऐसा प्रयास किया जाना चाहिए की महिलाओं के स्तर पर उन्हें तमाम वैकल्पिक माडलों से एक्सपोज किया जाना चाहिए।

सवाल: आपको क्या लगता है कि सरकार क्या करे कि महिलाएं राजनीति  में ज्यादा से ज्यादा आयें । वो खुद अपनी इच्छा से आयें ना कि पति और परिवार के दबाव में आयें ।
जवाब: वैसे तो यह विश्व का पहला लोकतंत्र है जहां इतनी संख्या में महिलाएं राजनीति में आयी हैं चाहे वो अमरीका हो या कोई और देश इतनी संख्या में किसी अन्य देश में निर्वाचित महिला प्रतिनिधि नहीं है। यहां पर बात यह नहीं है की सरकार क्या करे? सरकार को जो करना था वो उसने 33 प्रतिशत आरक्षण दे कर कर दिया। यहां जरूरत समाज के करने की है, समाज को अपना दृष्टिकोण बदलना होगा और वो एक दो दिन की प्रक्रिया नहीं है उसमे समय लगेगा। पूर्व राष्ट्रपति कलाम साहब का जो पूरा यानि ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी सुविधाएं प्रदान करने की अवधारणा है, जिसमे उन्होंने कहा है कि हमे गाँवो में पूरा का कांसेप्ट लेकर चलना चाहिए, जैसे शहरो में महिलाओं की स्वतंत्रा में इजाफा हुआ है, उनके आत्मविश्वास में इजाफा हुआ है, उसी प्रकार से यदि वो तमाम चीजें गाँवों में आयें  जो शहरों में उपलब्ध हैं तो गाँव में  लड़कियों के लिए रोजगार के अवसर उपलब्ध होंगे और लड़कियां अपने निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र होंगी और उनमे आत्मविश्वास भी आएगा।

सवाल: आज हम युवाओं केराजनीति  में आने की बात करते हैं लेकिन जब पंचायतों में देखते हैं तो सिर्फ  कुछ युवा लड़के ही राजनीति  में आ पाते हैं। पंचायतों में युवा लड़कियों की संख्या नगण्य है। वो कैसे पंचायत चुनाव में भाग लें?
जवाब: आप किसी अविवाहित लड़की को जबरदस्ती राजनीति  में तो नहीं ला सकते हैं। उसके लिए समाधान हमे स्थानीय स्तर पर ही तलाशना होगा। हमारे यहां जो माता-पिता के मन में जो भाव है की हमे लड़की के हाथ पीले कर के जिम्मेदारी से मुक्त होना है जो हमारी संस्कृति से जुड़ता है इसलिए ये लड़ाई लम्बी है केवल हम ये नहीं कह सकते कि केवल शिक्षा देकर हम समाज बदल देंगे लेकिन शिक्षा को छोड़ कर कोई दूसरा विकल्प भी नही है। उनमे यह आत्मविश्वास जगाना होगा कि वो बिना किसी पारिवारिक मर्यादा को हताहत किये बिना वो अपने सामाजिक भूमिका का निर्वहन कर सकती हैं। लड़कियां पंचायतों में इसलिए नहीं आ पाती हैं क्योंकि वो खुद सशंकित रहती हैं और उनसे भी ज्यादा उनके माता-पिता सशंकित रहते हैं क्योंकि ग्रामीण परिवेश में लड़कियों का पुरुषों से मिलना उनके साथ उठाना बैठना, उनके साथ वार्तालाप करना मर्यादा के खिलाफ माना जाता है। लड़कियां राजनीति  में आएंगी, यह होगा एक दिन लेकिन इसमें समय लगेगा। इसलिए जरूरी है कि वो शिक्षा, वो तकनीक, गांवों  में लायी जाए जो शहरों में हैं।

सवाल: आज लोकसभा और राज्यसभा में महिलाओं के 33 प्रतिशत आरक्षण की बात की जा रही है। आपको लगता है कि इससे पंचायत स्तर पर महिलाओं की भूमिका मजबूत होगी।
जवाब: आरक्षण किसी समस्या का अंतिम समाधान नहीं है। वर्तमान समय में भी बहुत सी महिलाएं राजनीति  में हैं फिर भी करोड़ो महिलाएं आज भी काफी कमजोर हैं। यदि हम इसे दूसरे  दृष्टिकोण से देखें तो विश्व के जो विकसित देश हैं  वहां भी महिला राजनीतिज्ञों की संख्या 11 से 12 प्रतिशत ही है। इस तरह से हम कितनी महिलाओं को राजनीति  में लायेंगे। कुछ महिलाओं को लायेंगे। बाकी असंख्य का क्या होगा? ये सिम्बोलिक के लिए तो ठीक है कि  एक तिहाई महिलाएं  राजनीति  में आ गयी लेकिन क्या वो पूरे  महिला समाज का सशक्तिकरण है। आज जो अधिकतर सांसद पुरुष हैं  वो क्या ये सुनिश्चित करते हैं कि उन्होंने पूरे पुरुष समाज का सशक्तिकरण किया है। हमे समाज के हित में सोचना होगा। आरक्षण की बात कह कर हम महिला विकास, महिला सशक्तिकरण, महिला उन्नयन से पल्ला झाड़ लेते हैं |  जरूरत पूरे परिवेश को सुधारने की है जिसमें हर महिला सशक्त हो, शिक्षित हो। महिला को यह आजादी हो कि वो चाहे तो राजनीति में आयें,  कृषि में आये, शिक्षा में आये, सरकार को ऐसा परिवेश बनाने की कोशिश करनी चाहिए की महिला में यह आत्मविश्वास आयें  की वो जो चाहे वो करे। महिला और पुरुष के समानता की जो बात हम करते हैं वो सिर्फ आरक्षण से नहीं आएगी।

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