Tuesday 16 April, 2013

गाँव से निकलते ही बदल जाते हैं जाति और पेशा




गाँव एक तेज़ी से बदलती हुई मानवीय बसावट है। शहरों में बैठकर लोग अक्सर गाँव को किसी कालखंड में फं सी हुई नाव की तरह देखते हैं। जिसके नीचे से पानी तो सरकता जा रहा है, मगर नाव वहीं की वहीं है। ऐसा नहीं है। हर स्तर पर गाँव बदल रहे हैं। ये गतिशीलता शहरों की तरह है। देशभर में लाखों लोग हर साल अपना गाँव छोड़ दे रहे हैं। गाँव से बाहर जाते ही उनका रोजग़ार जातिगत या पारंपरिक पेशे की ज़द से बाहर निकल कर बदल जाता है। आज किसी गाँव में वहां रहकर और वहां से बाहर गए लोगों के काम की सूची बनाई जाए तो कमाल की विविधता और अदल-बदल की जानकारी मिलेगी। जिससे एक निष्कर्ष यह भी निकलेगा कि भेदभाव और पेशे के आधार पर जातिगत पैमाने में काफ ी परिवर्तन हुआ है। इसका मतलब यह कत्तई नहीं कि जात-पात या छूआछूत खत्म हो गया। लेकिन ये दोनों तत्व ही गाँव की एकमात्र सच्चाई नहीं हैं।

 मैं जहां रहता हूं, वहां बन रही बड़ी-बड़ी इमारतों में काम करने वाले मज़दूरों को अक्सर देखता रहता हूं। ये सभी अलग-अलग गाँवों या राज्यों से आए लोग हैं। इन सबके बीच पहली बार काम को लेकर समानता बन रही है। जिसका संबंध इनके जातिगत पेशे से बिल्कुल नहीं है। इंदिरापुरम की एक इमारत से सटे कई छोटे-छोटे अस्थायी घर बने हैं जिनमें मज़दूर या उनके परिवार रहते हैं। ये अस्थायी घर बसते हैं और इमारत बनने के बाद उजड़ जाते हैं। उसके करीब से गुजऱते वक्त देखता हूं कि सब एक ही प्रकार की स्टील की थाली में खाना खा रहे होते हैं। चावल और उसके ऊपर आलू की रसदार सब्ज़ी। गाँव में खान-पान का जातिगत अंतर यहां समाप्त हो चुका है। सबका खाना एक जैसा है। एक साथ खाना है। वे दिन गए जब शादी ब्याह में जाति के टोलों के हिसाब से खाने की पंक्ति बनती थी। ये सारे अनुभव हमारी पहचान को नए सिरे से गढ़ रहे हैं या नहीं, इसका अध्ययन होना चाहिए। हो भी रहे होंगे। बड़ी संख्या में लोग इमारती मज़दूर बन रहे हैं। सवर्ण जाति के लोग भी इनमें शामिल हैं। उसी तरह शहरों में सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी ने भी जातिगत आधार में फेरबदल का मौका दिया है।

कई ऐसे काम हैं जो गाँव में जाति के हिसाब से करते थे शहर में आप उसे मजदूरी के हिसाब से करते हैं। और यह बदलाव सिर्फ  शहरों में नहीं हो रहा है। गाँवों में भी हो रहा है। पेंग्विन प्रकाशन से एक दिलचस्प किताब आई है। दर-दर गंगे। हर-हर गंगे का मंत्र जप कर हम गंगा के साथ क्या कर रहे हैं इसकी कहानी है। अभय मिश्र और पंकज रामेंदु नाम के दो युवकों ने गंगोत्री से गंगासागर तक की यात्रा कर गंगा की व्यथा कथा लिखी है। इस किताब में उत्तर प्रदेश के गढ़मुक्तेश्वर का जिक्र है। गंगा पर लिखी यह एक बेहतरीन किताब है। अभय और पंकज लिख रहे हैं कि 'गंगा में जैसे-जैसे पानी कम होता गया वैसे-वैसे लोगों में क्षुद्र मानसिकता पनपती गई। जिन पुरोहितों को नाव में बैठा कर मल्लाह यहां आए हुए लोगों को मोक्ष दिलवाने में मदद किया करते थे बीते दस सालों में उन्हीं पुरोहितों को पीछे छोड़ मलकू सहित कई दूसरी जातियों ने अपनी दादागिरी से यहां पंडागीरी शुरू कर दी है। कुछ पेट की आग से पुरोहित बन गए तो कुछ को लालच ने झुलसाया।'

मैं अभय और पंकज की इस बात से सहमत नहीं हूं कि जो भी हुआ वो क्षुद्र मानसिकता के तहत हुआ। समाज में अल-अलग दौर में इसी तरह से पेशे बदलते रहे हैं और पेशे के साथ जातियां बदलती रही हैं। जऱा कल्पना कीजिए पुरोहिती का काम करते करते मल्लाहों की चार पांच पीढ़ी निकल जाएंगी तो वे खुद को ब्राह्मण या केवट ब्राह्मण कहेंगे या नहीं। क्या हमारी जातियों में कई इसी तरह से पहले नहीं गढ़ी गई हैं। एक बदलाव यह भी देखिए कि हम जिस पर आश्रित रहते हैं उसके कमज़ोर पड़ते ही पेशे किस तरह से बदल जाते हैं। गंगा सूख गई तो गंगा पर आश्रितों के पेशे बदल गए। गाँव में रोजग़ार के अवसर कम हुए तो गाँववालों ने शहर में जाकर जाति के हिसाब से काम नहीं ढूंढ़ा। कई लोग कहते हैं कि शादी का न्योता देने के लिए नाऊ नहीं मिल रहे हैं। लेकिन यह भी तो पता कीजिए कि वे नाई या नाऊ इनदिनों कहां हैं और क्या कर रहे हैं। क्या पता इनमें से कोई दिल्ली या मुंबई जैसे शहरों में कर्मकांड में पारंगत होकर पुरोहिती का काम कर रहा हो। या फि र ठेले पर आम और अंगूर लादे बेच रहा हो।

अब सवाल यह है कि क्या जाति भी बदल रही है। अलग-अलग संदर्भों में यह भी हो रहा है। मल्लाह का पुरोहित होना सिर्फ  पेशे का अदल-बदल नहीं जातियों की भी अदला-बदली है। गाँवों में खेतिहर मज़दूरों में औरतों की बढ़ती संख्या अलग तरीके से पारंपरिक ढांचे को तोड़ रही है। औरतों का अपने घर के पास यह अनुभव जल्द ही उन्हें दुनिया के बाकी हिस्सों में ले जाने के लिए प्रेरित करेगा। जैसे बंगाल और झारखंड से बड़ी संख्या में औरतें दिल्ली, मुंबई बंगलुरू के घरों में काम करने के लिए निकल रही हैं। इन राज्यों और समाजों में श्रम में औरतों को पहले से एक बराबरी हासिल है। जैसे ही पलायन का यह दूसरा दौर उत्तर भारत के गाँवों से शुरू होगा ग्रामीण सामाजिक संबंध दूसरे तरीके से बदलेंगे। तकनीकी का आगमन होगा और खेती और किसानी करने वाले कोई और होंगे। इसलिए हमारे समय के इस दौर को इस चश्मे से न देखें कि कुछ नहीं हो रहा है। हमारे संबंध तेजी से बदल रहे हैं। गाँव उससे भी तेज़ गति से।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

2 comments:

  1. जो बात भावनाओं के साथ अक्सर बह जाया करती थी । उसे इस किताब ने शब्द दिये हैं । ताकि हम रुके , सोचें , समझें और आगे बढ़ने से पहले एक डुबकी गंगा के नाम की भी लगाएं !

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  2. ravish ji .kisi cheej ko oopar se dekhna aur kisi samaj ke beech reh kar mehsoos karna dono alag alg baat hai..shayad aap samajh jayenge

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