Wednesday 6 March, 2013

जैविक खेती से लागत में 40 फीसदी तक की कमी



कानपुर। रवांलालपुर के राम बिलास ने 500 रुपये खर्च करके खेतों में साबरी किस्म की गाजर बोई। जब उनके खेतों में कुल 32 कुंतल गाजर पैदा हुई तो उनकी खुशी का ठिकाना रहा। आमतौर पर 6 से 8 रुपये प्रति किलो बिकने वाली गाजर की गुणवत्ता इतनी अच्छी थी कि मंडी में उसे 10 रुपये प्रति किलो के भाव से खरीद लिया गया। गाजर की सल से 60 गुना से भी ज्यादा मुनाफा कमाने वाले राम बिलास ने किया सिर्फ  ये था कि अपने खेतों में उन्होंने रासायनिक खादों का बिल्कुल इस्तेमाल नहीं किया और पूरी खेती जैविक विधि से की।

हरनू में रहने वाले ज्ञान चौरसिया ने भी जैविक खेती की मदद से अपने खेतों में बोये प्याज से तकरीबन 4 हज़ार रुपये ज्यादा मुनाफा कमाया। रासायनिक खादों की जगह जैविक खादों का इस्तेमाल करने से केवल 4 कुंतल ज्यादा प्याज उगा, बल्कि पूरी तरह रोगमुक्त और साफ  सुथरा भी रहा।

जैविक खेती करने में रासायनिक खादों का उपयोग नहीं किया जाता। इसमें गाँव में ही तैयार कम्पोस्ट खाद का उपयोग किया जाता है। यूपी के कुछ गाँवों में तो बीज को शोधित करने के लिए 'अमृत पानी' जैसे देसी नुस्खे भी तैयार किए गए हैं।

गैरसरकारी संगठन श्रमिक भारती में बतौर प्रोजेक्ट कोऑर्डिनेटर काम कर रहे उदय प्रकाश उपाध्याय जैविक खेती से किसानों को हो रहे फायदे के बारे में बताते हुए कहते हैं, "जैविक खेती से कसानों की खेती में लागत में लगभग 40 प्रतिशत की कमी आई है। पहले जहां किसान अपने पड़ोसी किसान से प्रतिस्पर्धा के चलते रासायनिक खादों का खूब प्रयोग करते थे, वहीं अब वह रासायनिक खादों का प्रयोग बहुत कम कर रहे हैं"
सरकार से लेकर तमाम पर्यावरणविद अब जैविक खेती को देश की खेती का भविष्य मान रहे हैं। सरकार की ओर से  एनपीओएफ  नाम की एक राष्ट्रीय परियोजना इसे बढ़ावा देने के लिए चल रही है। साथ ही, राष्ट्रीय हॉर्टिकल्चर मिशन और राष्ट्रीय कृषि विकास योजना नाम से दो अन्य कार्यक्रम भी जैविक खेती पर केंद्रित हैं, जिन्हें सरकार द्वारा सचालित किया जा रहा है।

राष्ट्रीय हॉर्टिकल्चर मिशन के तहत वर्मी कंपोस्ट यूनिट बनाने के लिए सरकार द्वारा 50 फीसदी तक की सब्सिडी दिए जाने का प्रावधान किया गया है, जो कि अधिकतम 30 हज़ार तक हो सकती है। जैविक खेती अपनाने के लिए किसानों को प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 10 हज़ार रुपये तक की मदद देने का प्रावधान भी है। इस योजना का लाभ 4 हेक्टेयर तक की जमीन के लिए ले सकते हैं।

शिवराजपुर तहसील के नदीहाखुड़ा गाँव की सुमन एक किसान हैं जिन्होंने जैविक खेती से हुए फायदे को उन्होंने प्रत्यक्ष देखा है। 'पहले एक बीघे में 2 क्विंटल गेहूं मुश्किल से उगता था। अब पूरे 18 कुंतल उगता है। पूरे 8 गुने का र्क गया है।' वो मुस्कुराते हुए बताती हैं। 


महिलाएं जिन्होंने बदले खेती के तरीके


शिवराजपुर, कानपुर। करीने से संवारे गये सफेद हो रहे बाल, आंखों में एक मोटा सा चश्मा और उम्र 'सत्तर में एक कम' ये हैं मुन्नी देवी। अपनी उम्र से छोटी 25 से ज्यादा महिला किसानों की इस बैठक में भाग लेने मुन्नी देवी 20 किलोमीटर दूर के एक गाँव बड़ी मनो से आई हैं। ये सारी औरतें यहां इसलिये इकट्ठा हुई हैं कि खेती करने के नये तरीकों पर चर्चा कर सकें। 

कानपुर से तकरीबन 50 किलोमीटर दूर शिवराजपुर नाम के इस छोटे से कस्बे के दस बाई दस के एक कमरे में बैठी ये 25 औरतें जैविक खेती से जुड़े नये तरीकों पर बात करने लिये यहां हर महीने जमा होती हैं। जैविक खेती के अपने 5-6 साल के अनुभवों को बटोरकर लाई ये ग्रामीण औरतें इस विषय ऐसे बात करती हैं जैसे इन्हें इस पर सालों की विशेषज्ञता हासिल हो।

एकता महिला समिति नाम के संगठन से जुड़ी इन औरतों ने सालों से गांवों में बेकार पड़ी ऊसर ज़मीन को जैविक खेती के नुस्खों और अपनी मेहनत के बूते फि से जिला दिया है। इनमें से कई हैं जो अब अपने खेतों से केवल अपना घर चला रही हैं बल्कि अच्छी खासी कमाई भी कर रही हैं।

2006 में जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिये गैर सरकारी संगठन श्रमिक भारती द्वारा आजीविका- दो नाम से शुरु की गई परियोजना से जुड़ी औरतों में से एक हैं पडऱहा गांव की सियादुलारी। सियादुलारी बताती हैं, "आजीविका कार्यक्रम से जुडऩे के बाद खेती करने का हमारा तरीका काफी कुछ बदल गया। अब हम स्प्रे मशीन, जीन पाईप जैसे यंत्र प्रयोग करने लगे हैं। धान, गेहूं और मटर की खेती में जैविक विधि से काफ र्क आया है। पहले खेती से जितना पैसा आता था उतना ही खेती में लग जाता था। अब ायदा होना शुरु हुआ है।"

नदीहाखुड़ा गांव की सुमन यू ंतो शान्त स्वभाव की लगती हैं पर जब बोलने पे आती हैं तो लगता है जैसे किसी दल का प्रवक्ता आपसे बात कर रहा हो। वो बताती हैं "जैविक खेती से छोटे किसानों को ज्यादा ायदा हुआ है। हमारे खेतों का पूरा इलाका उसर वाला इलाका था। पर धीरे धीरे हमने सीखा कि खेतों में कौन सी दवा डालनी है, कौन सी नहीं।" जैविक खेती से हुए फायदे को उन्होंने प्रत्यक्ष रुप से देखा है। "पहले एक बीघे में 2 क्विंटल गेहूं मुश्किल से उगता था। अब पूरे 18 क्विंटल उग जाता है। पूरे 8 गुने का र्क गया है।" वो मुस्कुराते हुए बताती हैं।

जैविक खेती के लिये बढ़ते रुझान से डीएपी जैसी महंगी और नुकसानदायक खादों के प्रचलन में भी कमी आई। हरनू गांव में रहने वाली किसान मायादेवी बताती हैं, "हमारे यहां ज्यादातर गेहूं और धान की बुआई होती है। पहले हम खेतों में डीएपी डालते थे। लेकिन जब से जैविक खेती के बारे में सुना तबसे हमने जैविक खाद का इस्तेमाल  करना शुरु किया। इससे अन्तर ये आया कि सलों में रोग लगना कम हो गया और खाने का स्वाद भी बिल्कुल बदल गया।"

गाँवों में अक्सर सलों को बोने का एक पैटर्न होता है। लोग सालों से चले रहे उस परम्परागत तरीके से बाहर नहीं आना चाहते। लेकिन सुमन और उन जैसे कई किसानों ने खेती में सालों से चली रही उन परम्पराओं को तोड़ा। वो बताती हैं "पहले हम गहरी जड़ों वाले पौधे नहीं उगाते थे। धीरे धीरे हमने सल चक्र को अपनाना शुरु किया है। एक खेत में एक से अधिक सलें उगानी शुरु की। जैसे पहले हम खेतों में चना नहीं बोते थे। अब बोने लगे हैं। इससे काफ फायदा हुआ है।"

जैविक खेती के लिए ग्रामीण महिलाओं में आई इस चेतना का असर ये हुआ कि लोगों ने गाँवों में रासायनिक खाद का प्रयोग कम करना शुरु कर दिया। कम्पोस्ट पिट बनाने के लिये भी उनमें जागरुकता आने लगी। डिब्बा निवादा गांव की शारदा बताती हैं "अकेले हमारे गांव में 7 स्वयंसहायता समूह काम कर रहे हैं। हमने अपने गाँव में कुल 82 कम्पोस्ट पिट खुदवाये हैं। इनमें हम 90 दिन तक घर का कूड़ा कचरा डालते हैं और फि उससे बनी खाद को खेतों में प्रयोग करते हैं। इससे खेतों में जो पैच थे वो बहुत कम हो गये।"

समूह बनाकर जैविक खेती करने का फायदा इन महिलाओं से बात करने पर साफ  दिखाई देता है। खेती के लिये उनकी समझ उनके तकनीकी ज्ञान से ही झलक जाती है। मतौना गांव की ऊषा बताती हैं "हमारे गांव में आज से कुछ साल पहले बिलकुल ऊसर था। पहले होता ये था कि हम गोबर को ढ़ेर लगाकर जमा करते थे। उससे बारिश के दिनों में उसके सारे पोषक तत्व बह जाते थे। गोबर में एक जानवर बुट्टा या मामा का बीज होता है, वो बीज रह जाता था। जब ये खाद हम खेतों में डालते थे तो मामा सल को नष्ट कर देता था और खाद भी कोई खास र्क नहीं डालती थी। गोबर कच्चा रह जाता था और कच्चे गोवर में दीमक लग जाता है जिससे सलों को भारी नुकसान होता था। लेकिन बाद में हमने कम्पोस्ट खाद का प्रयोग करना शुरु किया। इससे बीज कम्पोस्ट के पिट में ही नष्ट हो जाता है। अब सलें अच्छी होने लगी हैं।"

जैविक खेती ने ऊषा जैसे किसानों को केवल खेती में फायदा दिया बल्कि इसका असर उनके परिवार की सेहत में भी पड़ा। ऊषा बताती हैं "पहले खेतों पर तो ज्यादा खर्च होता ही था डॉक्टर पर भी खर्च ज्यादा आता था। खेत जहरीले थे। जैविक खेती से दोनों चीजों में खर्च बच जाता है।"

उन्हत्तर साल की मुन्नी देवी उन किसानों में से हैं जिन्होंने खेती के तौर तरीकों में 'तब से अब तक' कई बदलाव देखे हैं। उनके पास 2 बीघे की जमीन है जिसपर वो अपने परिवार के साथ पिछले 30 साल से खेती कर रही हैं। वो कहती हैं "हमारे वक्त में तो औरतें घूंघट तक नहीं खोल सकती थी खेती तो दूर की बात। पहले नीम की खली, जैविक खाद जैसा कोई कुछ जानता ही नहीं था। अब तो हम भी यहां आकर कम्पोस्ट खाद वगैरह के बारे में जान रहे हैं। हमारे समय से अब तक तो बहुत बदलाव चुका है।"

आज शिवराजपुर तहसील के 30 से ज्यादा गांवों में 500 से ज्यादा महिलाएं और पुरुष जैविक खेती के प्रयोग से अपनी सलों में र्क देख रहे हैं। लेकिन इतने लोगों को जोडऩा कोई आसान काम नहीं होता। गांवों में लोग रिस्क लेने को तैयार नहीं होते। वाकरगंज गांव की राममूर्ति बताती है, "2 साल पहले तक हमें खेती के नये तरीकों के बारे में कोई खास  जानकारी नहीं थी। हमारे गांव में महिलाएं समूह बनाने के लिये  इकट्ठी हो रही थी। पहले तो हम टालते रहे। बाद में जब हमें    शहर से जानकार लोग आकर खेती के   बारे में नई जानकारियां देने लगे      तो हमें लगा कि कुछ अच्छा काम हो रहा है।"

 श्रमिक भारती के स्थानीय संयोजक अरमान अली इन महिलाओं के बीच लम्बे समय से जुड़े हुए हैं। उसर सुधार और जैविक खेती को लेकर शुरु हुई अपनी परियोजनाओं के बारे में गाँव कनेक्शन से हुई उनकी बातचीत के अंश-
सन 2006 में हमने ऊसर सुधार के लिये आजीविका-2 नाम से ये परियोजना शुरु की। गांवों के खेतों में सलों के बीच कई पैच रह जाते थे। हमने इन खेतों को सुधारने के लिए जैविक विधि का इस्तेमाल किया। इसके लिये गांवों में खेतों के पास हमने 1 मीटर गहरे, डेढ़ मीटर चौड़े और ढ़ाई मीटर लम्बे  गड्ढ़े खुदवाये और उनमें घर का सारा कूड़ा-कचरा, घास- ूस वगैरह डलवाया। हमारी इस मुहिम से 30 गांवों की तकरीबन 500 महिलाएं और पुरुष जुड़े। ऐसे गड्ढ़े खुदवाने के लिये हर परिवार को हमने 100 रुपये दिये।
हमने कृषि वानिकी नाम से एक और कार्यक्रम चलाया। आम, नीबू, कटहल वगैरह के लगभग 5 हजार पौंधे इस कार्यक्रम के तहत लगाये गये। गांवों में डीपो बनाये गये। नीम की खली और माईक्रोन्यूट्रेन सुपरएक्शन जैसे उर्वरकों के बारे में किसानों को जागरुक किया गया। परिणाम ये हुआ कि इस वक्त 30 गांवों में हमारे 90 स्वयंसहायता समूह जैविक खेती और खेती से जुड़े अन्य कार्यक्रमों को चला रहे हैं।
अरमान अली
स्थानीय संयोजकश्रमिक भारती



जैविक खेती से ही बचेंगे मित्र कीट और बढ़ेगा मुनाफा


·कानपुर से जुड़े लगभग 30 गाँवों में पिछले कु सालों में जैवि· खेती को ले क नई चेतना आई है। गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) श्रमि भारती ने गाँव की महिलाओं के बीच जैवि खेती को ले  केवल जागरुता अभियान चलाया बल्की उन्हें जैवि खेती की नीकें सिखाईं। इस बारे में एनजीओ के प्रोजेक्ट कोऑर्डिनेटर उदय प्रका उपाध्याय ने बात की उमेश पंत से :

सवाल-जैविक खेती को लेकर आप किन किन क्षेत्रों में काम कर रहे हैं और क्या क्या?
जवाब-कानपुर नगर के शिवराजपुर ब्लॉक के 30 गाँवों में केकेएस जर्मनी तथा डब्ल्यू डब्ल्यू एफ  के सहयोग से लगभग 1400 किसानों के साथ स्थायी कृषि तकनीकों पर कार्य किया जा रहा है। किसानों को जैविक विधि से ऊसर सुधार की विधि बताई जा रही है एवं रासायनिक खादों का प्रयोग धीरे धीरे कम करके गोबर की खाद तथा अन्य जैविक खादों के प्रयोग को बढावा दिया जा रहा है। रासायनिक कीटनाशी, खरपतवार नाषी का प्रयोग रोकने एवं स्थानीय स्तर पर तैयार कीट प्रबन्धन हेतु अमृत पानी, नीम तेल तथा नीमखली के प्रयोग को बढ़ावा दिया जा रहा है।  गोबर ठीक से सडऩे के कारण खेतों में उसका इस्तेमाल करने पर  खरपतवार और दीमक की बढ़ जाते हैं, जिससे खरपतवार  रोकने में कृषि लागत में बढोत्तरी होती है। किसानों को इस नुकसान से बचाने के लिए कम्पोस्ट पिट बनाने को प्रेरित किया जा रहा है तथा लगभग 900 किसानों ने अपने घरों तथा खेतों में कम्पोस्ट पिट का बनाकर गोबर को उस गड्ढ़े में डालना शुरू किया है जिसके भर जाने पर वे इस गड्ढ़े को 90 से 100 दिनों के लिये ढ़क देते हैं और उसके बाद उस सड़े हुए गोबर की खाद को अपने खेतों में इस्तेमाल करते हैं जिससे उनके खेतों को पर्याप्त मात्रा में नाइट्रोजन तथा अन्य पोशक तत्व मिलते हैं और रासायनिक खादों पर होने वाला खर्च कम हो जाता है।

  नीम की खली के प्रयोग को बढावा दिया जा रहा है जिससे किसानों के खेती पर आने वाले खर्च में कमी रही है। नीम की खली से मिट्टी तो शोधित हो ही रही है साथ ही साथ कीट पतंगों आदि से भी किसानों को निजात मिल रही है।

सवाल- इस बीच गांवों में खेती को लेकर क्या बदलाव आये हैं? जैविक खेती ने गांवों की अर्थव्यवस्था में किस तरह से बदलाव  किया है?
जवाब- किसानों की कृषि लागत में लगभग 40 प्रतिशत की कमी आयी है। पहले जहॉं किसान अपने पड़ोसी किसान से प्रतिस्पर्धा में रासायनिक खादों का प्रयोग करता था वही़ अब वह रासायनिक खादों का प्रयोग बहुत कम कर रहा है। गड्ढ़े की कम्पोस्ट खाद की तरफ  किसानों का रूझान बढ़ा है। किसानों ने सूक्ष्म पोशक तत्वों का प्रयोग  करना शुरू   किया है।

खुद किसान बताते हैं कि जैविक विधि से तैयार उत्पाद  ज्यादा स्थायी, स्वास्थ्यप्रद तथा कम लागत वाला है। इस साल आलू की सल में अंतिम समय में बारिश होने के कारण आम तौर पर किसानों की आलू में सडऩ गयी है, जबकि जिन किसानों ने नीमखली तथा अमृतपानी का प्रयोग किया है उनके आलू में सडऩ नही है आलू स्वस्थ्य निकल रहे हैं। किसानों ने अपनी खेती की लागत में आयी कमी तथा अतिरिक्त आमदनी से अपने परिवार के बच्चों की शिक्षा तथा रहन सहन के स्तर में बढोत्तरी की है।जल संचयन सरंचनाओं के निर्माण से भूगर्भ जल स्तर औसतन लगभग 2 मीटर ऊपर आया है जिससे किसानों का सिंचाई का खर्च और खेती में लगने वाले समय दोनों में कमी आयी है।

सवाल- पारम्परिक खेती से जैविक खेती की ओर महिलाओं के रुझान को आप कैसे    देखते हैं?
जवाब- महिला स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से महिलाओं को संगठित कर उनके परिवारों को आर्थिक स्तर पर मजबूत करने का प्रयास किया जा रहा है। श्रमिक भारती द्वारा संचालित कृषि आधारित परियोजनाओं में इन समूहों का विशेष योगदान होता है। गांव में कृषि निवेशों जैसे, उन्नत किस्म के बीज, सूक्ष्म पोशक तत्व, श्रम में कमी लाने वाले यंत्र, हरी खाद तथा नीम खली तथा नीम तेल आदि की व्यवस्था का काम इन समूहों के संघ (फेडरेशन) को दिया गया है। किसानों से इन कृषि निवेशों का मूल्य लेकर फेडरेशन में रिवाल्विंग फं के तौर पर जमा किया जाता है। इस रिवाल्विविंग फंड से परियोजना समाप्त होने के बाद भी किसानों को कृषि निवेशों का फायदा मिलता रहेगा और इससे फेडरेशन की आय भी होती रहेगी। साल 2011-12 में यह निवेश परियेाजना में उपलब्ध धन से खरीद कर किसानों को मुहैय्या कराया गया और उसकी कीमत किसानों से लेकर फेडरेशन में जमा की गई। साल 2013 में परियेाजना में निवेश का बजट होने के बावजूद भी किसानों को पिछले सालों में तैयार रिवाल्विंग फं से निवेश की व्यवस्था कराई जायेगी।

सवाल- कुछ लोगों के बारे में बताइये जिन्होंने जैविक खेती के जरिये आर्थिक रुप से अच्छा मुनाफ कमाया हो?
जवाब- ज्ञान चौरसिया, हरनू:-पिछले वर्श 12 बिसुवा में प्याज की खेती की जिसमें लगभग 16 कुन्तल प्याज पैदा हुई इसके पहले इनके खेत में प्याज का औसत उत्पादन 18-20 कुन्तल प्रति बीघा होता था वही इस साल केवल 12         बिसुवा में 16 कन्तल उत्पादन रहा। प्याज में किसी भी तरह के रासायनिक   खादों आदि का प्रयोग नही किया गया था। आमतौर पर प्याज जल्दी खराब होना षुरू हो जाती है जबकि इनकी प्याज अंत तक रोगमुक्त रही एवं ज्यादा दिन तक चली। पिछले वर्शो का औसत उत्पादन को देखे तो प्रतिबीधा 1 कुन्तल का उत्पादन होता था इस हिसाब से  इनके 12 बिसुवा खेत में 12 कुन्तल उत्पादन होना चाहिये। इस वर्श 4 कुन्तल अतिरिक्त उत्पादन लिया गया। जिससे लगभग 4000 रूपये का अतिरिक्त लाभ कमाया।

राम बिलास, रवांलालपुर- जैविक विधि से 10 बिसुवा में गाजर की साबरी किस्म की 90 दिन की फसल लगाई इस फसल में कुल लागत 500 रू0 लगाई। रासायनिक खादो का प्रयोग बिल्कुल भी नही किया। कुल 3200 किलोग्राम का उत्पादन हुआ। गाजर का बाजार मूल्य आमतौर पर 6 से 8 रू0 प्रति किलो है जबकि मण्डी में इनकी गाजर की क्वालिटी साइज आदि को देखते हुए 10 रू0 प्रति किलो का रेट मिला। इनकी गाजर की लम्बाई औसतन 6 से 8 इंच रही। पहले इतने ही क्षेत्रफल में औसत उत्पादन लगभग 3000 किलोग्राम होता था।
  इसी तरह से 30 गांवों में किसानो की बहुतायत है मुख्यत: इन कसानों ने उल्लेखनीय आर्थिक मुनाफा                             कमाया। बाबूराम, सोमनाथ, नन्दगोपाल,ओम प्रकाश, बाबूपाल, छोटेलाल, राममूर्ति, सुरेश कुमार आदि लाभार्थी किसान हैं।

सवाल- आमतौर पर ये माना जाता है कि गांवों में लोग खेती के पारंपरिक तरीकों को छोडऩा नहीं चाहते, वो कोई रिस्क नहीं लेना चाहते, इस बारे में आपके अनुभव?
जवाब- इस परियोजना की शुरुआत में किसानों ने इन विधियों का विरोध किया और यह कहा कि बिना रासायनिक खाद एवं कीटनाषियों के खेती हो ही नहीं सकती। लेकिन जब हमने किसानों को व्यावहारिक रूप से इन तकनीकों को प्रदर्षित करके दिखाया तो धीरे धीरे लोगों ने इन तकनीकों को अपनाना शुरू किया और अब वो इन तकनीकों का खुशी-खुशी इस्तेमाल कर रहे हैं।

सवाल- जैविक खेती अपनाने को क्यों जरुरी मानते हैं आप?
जवाब- रासायनिक खाद के अत्यधिक प्रयोग से जमीन की उर्वरा शक्ति नष्ट हो रही है आज यह हालत है कि किसान जिस मात्रा में खादों का प्रयोग कर रहे हैं उसकी तुलना में उनको उत्पादन नहीं  मिल रहा। रासायनिक खादों एवं कीटनाषियों के प्रयोग से सभी के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। आज हर घर में कोई कोई बीमारी का शिकार हो रहा है। खेती के मित्र कीट-पतंगे नष्ट हो चुके है। आज केंचुए, गिद्ध, मेढ़क आदि विलुप्त हो चुके हैं। यह रासायनिक खादों का ही असर है।



अमृतपानी बीजों का पौष्टि आहार

शिवराजपुर तहसील के ग्रामीण इलाकों की महिलाएं जब खेती में प्रयोग करने पे आई तो उन्होंने जितना उनसे उम्मीद की जा सकती है उससे एक कदम आगे बढ़कर प्रयोग कर दिखाये। उन्होंने अमृतपानी नाम का एक ऐसा तरल तैयार किया जिससे बीजों को शोधित करने पर उनमें कीड़े लगने की सम्भावना बहुत कम हो गई। हमने अमृतपानी के बारे में उनसे जानना चाहा तो उन्होंने इसे बनाने की पूरी रेसेपी बता डाली। पेश है ग्रामीण महिला राममूर्ति से बातचीत पर आधारित अमृतपानी बनाने की पूरी विधि-

आवश्यक सामग्री

1 किलो देसी बेसन
1 किलो देसी गाय का मूत्र
1 किलो नीम की पत्ती
250 ग्राम देसी अकोड़ो
250 ग्राम धतूरे की पत्तियां
100 ग्राम लहसुन
100 ग्राम तम्बाकू का चूरन
250 ग्राम देसी गुड़
10 लीटर पानी

बनाने की विधि

इन सब पदार्थों का मिश्रण बनाकर अच्छे से घोल लेते हैं। फि इस मिश्रण को मटके में डालकर मटके का मुंह बंद कर देते हैं ताकि मटके के भीतर जो गैस बने वो बाहर आने पाये। 15 दिन के बाद मटके को खोला जाता है और इस मिश्रण को डन्डे से अच्छी मथ लेने के बाद छान लिया जाता है। छानने के बाद इसे मिटटी के बर्तन से निकालकर किसी और बरतन में रख दिया जाता है।

20 दिन में बनकर तैयार हो जाने वाले अमृतपानी का प्रयोग बीजों को शोधित करने के लिये किया जाता है। इससे शोधित किये हुए बीजों से चमकदार और अच्छी सल उगती है। साथ ही सलों में रोग और कीड़े लगने की सम्भावना भी कम हो जाती है। अमृतपानी का एक लीटर 5 से 10 रुपये तक में बेचा भी जा सकता है। 

1 comment:

  1. उमेश जी लेख बड़ा ही ज्ञानप्रद और मह्त्वपूर्ण है ,प्रकृति के साथ चलकर जैविक खेती करने में ही मानव और पर्यावरण दोनों की भलाई है !

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