Monday 3 June, 2013

राजनीति का ग्राम्यीकरण ज़रूरी

डॉ अनिल कुमार वर्मा 

 स्वतन्त्रता के 65 वर्षों के दौरान गाँवों का ज़बर्दस्त राजनीतिकरण हुआ है। खासतौर पर 1992 में 73 वें संविधान संशोधन के बाद जिसमें पंचायतों को संवैधानिक मान्यता और अधिकार दिये गये। इससे एक ओर ग्रामीण स्तर पर लोगों की राजनीतिक सहभागिता तो बढ़ी, लेकिन सदियों से चली आ रही ग्रामीण-भाईचारे की संस्कृति पर बुरा प्रभाव पड़ा। राजनीतिक सहभागिता ने गाँवों में ज़बर्दस्त राजनीतिक प्रतिस्पर्धा को जन्म दिया। इस प्रतिस्पर्धा का आधार राजनीतिक विचारधारा न हो सकी। राजनीतिक दलों ने जाति के आधार पर मतदाताओं को आकर्षित करना शुरु किया। जाति पर आधारित राजनीति ने आग में घी का काम किया। परिणामस्वरूप, जिस जातिगत बंटवारे एवं वैमनस्य के बावजूद गाँवों में भाईचारा बना रहता था उसका लोप हो गया और जातिगत बंटवारे राजनीतिक खेमों में बदल गये। जैसे-जैसे देश में राजनीतिक संस्कृति का पतन हुआ वैसे-वैसे ग्रामीण समाज में अन्तर जातिए सम्बन्धों में कटुता आती गई। कुछ लोग इस कटुता को यथा दृस्थितिवाद में परिवर्तन का संकेत मानकर इससे मुंह मोड़ लेते हैं और इसे सदियों से चले आ रहे उत्पीडऩ के अन्त का आरम्भ मानते हैं। शायद डॉ अम्बेडकर ने इसी स्थिति से बचने के लिये गांधी जी के राम राज्य की अवधारणा (जिसमें गाँवों को स्वशासन की इकाई बनाने का विचार था) का संविधान सभा में विरोध किया था। लेकिन आज डॉ अम्बेडकर की चिंता ने वास्तविक एवं विकराल स्वरूप ग्रहण कर लिया है। क्या इसका कोई समाधान है? 

किसी भी समाज में विचारों की भिन्नता एवं सामाजिक वर्गो में संघर्ष तो अपरिहार्य है, लेकिन राजनीति इसी समस्या के समाधान की कुंजी है। दुर्भाग्य से अपने देश में राजनीति समाधान के बजाय समाजिक संघर्षों की जननी बन गई है। इसीलिये ज्यादातर लोग राजनीति को गंदा समझ कर उससे दूर भागते हैं और यह धारणा घर कर गई है कि राजनीति केवल गुंडे-बदमाशों के लिये है। कैसे राजनीति को उसका वास्तविक स्वरूप लौटाया जाये? और कैसे इस गलत धारणा को दूर भगाया जाये? यह चुनौती बहुत बड़ी है पर यह न केवल सामजिक समरसता वरन देश के समग्र विकास के लिये बहुत ज़रूरी है।

ऐसी कोई समस्या नहीं जिसका समाधान न हो। हमने स्वतन्त्रता के बाद लोकतन्त्र और वयस्क मताधिकार का प्रावधान कर राजनीति को गाँवों की ओर ले जाने में तो सफलता प्राप्त की, लेकिन हम अपनी राजनीति को ग्रामोन्मुखी न बना सके। अर्थात एक कृषि प्रधान देश होते हुए भी हमारी राजनीति शहरोन्मुखी बनी रही। जो राजनीतिज्ञ गाँवों से आते, वे भी शहरों के ही स्वप्न देखते। इससे भारतीय राजनीति में गाँवों की हैसियत शहरों के मुकाबले दोयम दर्जे की हो गई। राजनीति उपर से चलकर नीचे पहुंची, वह दिल्ली से चलकर लखनऊ और वहां से भुआलपुर नगर या प्रदेश के अन्य किसी गाँव में पहुंची और, पहुंचने में राजनीतिक दलों द्वारा लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पालन न किये जाने के कारण गाँवों में राजनीति का चरित्र उपर से आरोपित सा हो गया, न कि नीचे से पल्लवित एवं पुष्पित। इसी से वहां की राजनीति व्यक्तिगत स्वार्थों, जातिगत प्रतिस्पर्धा व स्थानिक संकीर्णताओं पर आधारित हो गई। ऐसी राजनीति न गाँवों के विकास की सोच सकी, न ही देशहित की। और जब पंचायतों को संवैधानिक अधिकार दिये गये तब वे स्वराज और सुशाशन के केन्द्र बनने के बजाय लूट-पाट और भ्रष्टाचार के अड्डे बन गये। आज प्रत्येक पंचायत में औसतन तीन करोड़ रुपये प्रतिवर्ष पहुंच रहे हैं जो केन्द्र, राज्य सरकार और विभिन्न संस्थाओं से आते हैं। इतना धन किसी भी पंचायत में आने वाले गाँवों को कुछ वर्षों में खुशहाल बनाने के लिये पर्याप्त हो सकता है,शर्त यह है कि उसका सदुपयोग किया जाये। लेकिन सत्ता की वर्तमान संरचना ऐसा होने नहीं देगी।

क्या किसी वैकल्पिक सत्ता संरचना द्वारा इसे रोका जा सकता है? हां, यह सम्भव तो है पर यह एक पूरी नवीन संवैधानिक व्यवस्था की मांग करती है जिसमें कुछ मूलभूत परिवर्तन अनिवार्य होंगे। एक, भारतीय राजनीति नीचे से उपर जाये अर्थात राजनीतिक दलों की आन्तरिक संरचना में लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पालन हो ओर जो राजनीतिक कार्यकर्ता स्थानीय स्तर पर सक्रिय हों और जिनका अपने मतदाताओं से सीधा संवाद हो केवल उनको ही संगठनात्मक पदों पर निर्वाचित किया जाये और पंचायतों, नगर पालिकाओं, विधान सभाओं तथा संसद में उनको ही जन प्रतिनिधित्व का अवसर दिया जाये। 

द्वितीय, राजनीति ग्रामोन्मुखी हो जिससे दलीय नीतियों और सरकारी निर्णयों में देश की 70 फीसदी ग्रामीण आबादी और गाँवों के हितों का ध्यान सर्वोपरि हो। ऐसा नही कि छोटेए मझोले और बड़े शहरों की उपेक्षा कर के ही यह हो पायेगा। अभी हम विकास की 'औद्योगिक मानसिकता' में फसें हैं इसलिये उद्योगों के केन्द्र बने शहर और उनकी ज़रूरते हमें ज्यादा आकर्षित करती हैं। चूकिं प्रिन्ट और इलेक्ट्रानिक मीडिया भी शहरों को ही ज्यादा तरजीह देते हैं इसलिये भी सरकारें और राजनीतिक दल शहरोन्मुखी होने को विवश हैं, लेकिन ऐसा कर वे अपने वास्तविक दायित्व से विमुख हो रहे होते हैं। अगर लोकतान्त्रिक राजनीति का ककहरा यह कहता है कि सर्वसम्मत नहीं तो बहुमत से निर्णय हों, और यदि सर्वजन हिताय नहीं तो बहुजन हिताय तो अवश्य हो, तब तो यह मानना पड़ेगा कि बहुसंख्यक ग्रामीण आबादी और बहुसंख्य गाँवों को शहरी आबादी और शहरों के मुकाबले ज्यादा महत्व देना लोकतंत्र की पहली मांग है। क्या हमारी सरकारों और राजनीतिक दलों को लोकतन्त्र की इतनी भी साधारण समझ नही है? 

तीन, गाँवों और शहरों के साधारण नागरिकों को भी राजनीति में प्रवेश करने की परिस्थितियां बनें। यह कितनी विचित्र बात है कि जिस देश में 70 फीसदी जनता गाँवों से आती हो उसके शासन की बागडोर शहरी मानसिकता वाले राजनीतिज्ञों में निहित हो। आज सामान्यजन में यह बात बैठ गई है कि बिना पैसे और बाहुबल के राजनीति सम्भव नहीं, लेकिन हमें समझना होगा कि पैसे और बाहुबल की राजनीति में तभी ज़रूरत पड़ती है जब हमारा अपने क्षेत्र की जनता से जुड़ाव नहीं होता। इसका प्रमाण यह है कि अधिकतर लोगों को यही शिकायत होती है कि उनका विधायक, सांसद या अन्य जन प्रतिनिधि कभी मिलते ही नहीं। मिलें कैसे? वे तो शहरों और महानगरों की आलीशान कोठियों में विराजमान होंगे। हमें अपनी राजनीति और राजनीतिज्ञों को शहरों और महानगरों की आलीशान कोठियों से खींच कर गाँव की पुआल व चौपाल तथा शहरों और नगरों की धूल-धूसरित गलियों व झुग्गियों में लाना होगा।  

(लेखक सीएसडीएस, लोकनीति में उत्तर पद्रेश के समन्वयक और राजनीतिक विशलेषक हैं)

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