
महेंगाई बढऩे का एक कारण तो बढ़ती हुई आबादी है । आबादी से कहीं बड़ा कारण है मनुष्य का लालच। इसे अंग्रेजी में नीड (आवश्यकता) और ग्रीड (लिप्सा या लालच) कहा जाता है। यदि लोग अनाज, सोना, कपड़ा की जखीरेबाजी करेंगे तो दाम बढऩा स्वाभाविक है। पूंजीवादी ढांचे के अन्तर्गत जब कम्पटीशन होता है तो व्यापारी आपस में साठगॉठ करके माल दबाकर अभाव पैदा करते हैं और समाजवादी व्यव्स्था में जब सरकारी नियंत्रण होता है तो कालाबाजारी करते हैं, महंगाई बढ़ाते हैं।
कुुछ समय पहले हमारे देश के केन्द्रीय मंत्री श्री बेनी प्रसाद वर्मा ने कहा था कि महंगाई बढऩे से किसानों का भला होता है। किसान इन्तजार करता रहा कि अब भला हो तब भला हो परन्तु भला हुआ नहीं। उसका गेहंू आज भी बारह रुपया प्रति किलो बिक रहा है भले ही बाजार में ब्रांडेड आटा बाइस रुपया किलो बिकता हो। यही हाल बाकी अनाजों का है। मंत्री जी ने शायद सोचा होगा कि अनाज महंगा बिकेगा तो किसान को अधिक पैसा मिलेगा परन्तु छोटे और गरीब किसान के पास बेचने के लिए अनाज बचता ही कहां है। किसान के दरवाजे पर भाव सस्ता है तो बाजार मे महंगा। इसके बीच में बिचौलियों की दुनिया है।
जब पिछले सप्ताह यह कहा जाने लगा कि महंगाई सूचकांक नीचे आ रहा है तब आम आदमी को लगा शायद चीजों की महंगाई घटेगी। सोचा होगा कि बाजार में खाद, विविध दवाइयां, कपड़े, मसाले, गैस, डीजल, बच्चों की किताबें कापियां खरीदना कुछ आसान हो जाएगा। ऐसा भी नहीं हुआ। जब किसान ने डीएपी का दाम पूछा तो वही 1250 रुपए प्रति बोरी बताया गया तो सूचकांक का क्या मतलब।
उपभोक्ता मूल्य सूचकांक को राष्ट्रीय सांख्यिकी कमीशन (नैशलन स्टेटिस्टिकल कमीशन) के दिशा निर्देर्शों के अनुसार निकाला जाता है जिसमें 350 चीजों को कई वर्गों में बांटा जाता है। पहला वर्ग है खाद्य पदार्थों का जिसमें पेय पदार्थ और तम्बाकू आदि को भी सम्मिलित किया जाता है। परन्तु आम आदमी के अस्तित्व के लिए केवल खाद्य पदार्थ ही माने रखते हैं । दूसरे वर्ग में ईंधन और प्रकाश तथा तीसरे वर्ग में भवन सामग्री सम्मिलित रहती है। चौथे वर्ग में कपडा, बिस्तर और पैरों का पहनावा जबकि पांचवे वर्ग में अन्य विविध सामान आते हैं। अब यदि कम्प्यूटर, एसी, टीवी, फ्रिज, सरिया, लोहा, सीमेन्ट सस्ते हो जांय और सूचकांक गिर जाय तो लगेगा कि मजदूर की जेब में जो एक रुपया है वह अब पहले से अधिक क्रय शक्ति (परचेजिंग पावर) वाला हो गया है परंतु उसे यह चीजें खरीदनी ही नहीं हैं।
बाजार भावों के आधार पर निकाला गया मूल्य सूचकांक एक भरोसे का पैमाना होना चाहिए था। परन्तु उपभोक्ता मूल्य सूचकांक का अक्सर बाजार भाव से तालमेल नहीं रहता। इसका कारण है कि हमारे देश में ''थोक मूल्य सूचकांक" (होलसेल प्राइस इंडेक्स) की गणना की जाती है और बिचौलियों की भूमिका के कारण उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (कन्ज्यूमर प्राइस इंडेक्स) जो फुटकर दरें बताता है, थोक मूल्यों के हिसाब से नहीं चलता। बिचौलिए समीकरण बिगाड़ देते हैं। सूचकांक या इंडेक्स ऐसा होना चाहिए जो किसान मजदूर के लिए माने रखता हो और सरकार चलाने वालों को जमीनी सच्चाई से रूबरू कराए। यदि आम आदमी को एहसास दिलाना है कि उसके पास के रुपए की ताकत घटी है अथवा बढ़ी है तो सूचकांक एैसा निकालना होगा जो किसान और मजदूर के लिए प्रासंगिक हो यानी आम आदमी का मूल्य सूचकांक ( कामन मैन्स प्राइस इन्डेक्स) जो उन्हीं आवश्यक वस्तुओं के मूल्यों की गणना करे जो आम आदमी के अस्तित्वा के लिए आवश्यक हैं।
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